शनिवार, 15 अगस्त 2009

खोज करती हूँ उसी आधार की

फूँक दे जो में उत्तेजना
गुण न वह इस बांसुरी की तान में ,
जो चकित करके कंपा डाले हृदय
वह कला पायी न मैंने गान में ।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह
ओस के आंसू बहा के फूल में ।
ढूंढती इसकी दवा मेरी कला
विश्व वैभव की चिता की धूल में ।
डोलती असहाय मेरी कल्पना
कब्र में सोये हुओ के ध्यान में ।
खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में ।
देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे !
व्यापिनी क्षणभंगुरता संसार की ।
एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय
खोज करती हूँ उसी आधार की ।

(सविता सिंह)

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ये रचना उन दिनों की है जब उच्चमाध्मिक स्तर में अध्यन करते हुए ,हमारी मित्र मंडली के ऊपर लिखने का जूनून सवार था हमलोग व्यस्तता में भी खयालो को रहने के लिए कागज़ के घर दे जाते थे और मेरे इन्ही साथियों में से एक साथी की दिमागी उपज है जो मेरे हृदय को स्पर्श करने के साथ साथ प्रेरणा स्रोत भी हुई । आज हमें बिछडे बरसो हो गए अब तो यकीं से कह भी नही सकती कि हम मित्र है मगर शब्द और भाव आज भी साथ है ,वो सुनहरे पल भी । आजादी क्या है ?इससे जुड़े कितने प्रश्नों पर मैं एक आलेख लिखी और मन हालातो से जुड़कर इतना दुखी हुआ कि ये रचना उभर आई और शिकायत से ज्यादा खोज है ऐसे आधार की ........


4 टिप्‍पणियां:

  1. आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
    रचना गौड़ ‘भारती’

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  2. jyoti ji, bahut hi sunder kavita, ............wah...wah.wah.........ho sake to apne mitra tak badhaai avashya pahunchayen.

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