गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

बच्चे मन के सच्चे .....

बचपन इन बातों से हटकर अपनी उम्र गुजारे

जब हम बच्चे थे ,तब हमें बस उतना ही पता होता था ,जितना हमें किताबो में समझाया या पढाया जाता था या जो हमारे बड़े समझाते थे ,कि झूठ मत बोलो ,चोरी करो ,बड़ो का आदर करो ,गुरुजनों का सम्मान करो ,इत्यादि इत्यादि शिष्टाचार की इन बातों के अलावा हमारे समक्ष जिंदगी जीने के लिए कोई ऐसी शर्त नही होती थी जो हमारी स्वछंदता पर आरी चलाये ,विचारो को कुंठित करे तथा मन को बांधे
अपने हक के साथ ,मर्जी को पकड़ बढ़ते रहें ,जीते रहें धर्म की समझ , जाति की परख ,जिसका टिफिन अच्छा लगा खा लिया ,जो मन को भाया उसे दोस्त बना लिया ,हर भेद -भाव से अन्जान ,तहजीब किस चिड़िया का नाम है ये भी खबर नही रही इतना कौन सोचता रहा भला
दिमाग को भी आराम रहा उस वक़्त ,बेवजह कसरत समय -असमय पर नही करनी पड़ती रही ,जो सामने आया उसे चुनौती समझ स्वीकार करते गये और हर लम्हा मस्ती के साथ बिताते गये
कुछ बुरा कह दिया तो बिना कोई बैर रक्खे झट उससे माफ़ी मांग ली ,सोचने का भी अवसर नही लिया ,अहम से बिलकुल अछूते एवं मन के साफ़ ,कितनी खूबसूरत थी हर बात ,कितने कोमल थे हर भाव
एक खुला आकाश था सर पे और हरी - भरी धरती रही पाँव के नीचे हर कायदे -कानून से अनजान ,नाप -तौल से दूर
रिश्तों को जो बदसूरत बनाये और जिंदगी को बेरंग ऐसी समझदारी से बहुत किनारे
मगर उम्र के साथ -साथ हमारी समझ भी बढ़ने लगी ,हर मोड़ पर फर्क करना सिखाने लगी हम तहजीब के दायरों में सिमटने लगे ,विचारो को संकीर्ण करने लगे ,सांप्रदायिक दंगो में उलझने लगे ,सबसे अहम बात मैं के महत्व को जानने लगे ,तभी बंटवारे की योजना बनी ,इतने सारे भेद हमारे मन को भेदने लगे और हम घायल होने लगे तब हमें एक नई भाषा का अनुभव प्राप्त हुआ जिसे हम लकीरों की भाषा के नाम से जानते है ,और हम अपने को इसके अनुसार आंकने लगे
आपस में फर्क महसूस करते हुए बातों को दिल में जमा कर पत्थर की तरह हृदय को कठोर बनाने लगे ,भ्रम के जाल में उलझाते हुए हजारो मैल बेबुनियादी शिकायतों की एकत्रित कर मासूमियत ,अच्छाई को ढापते गये ,क्योंकि हम बड़े हो गये ज्यादा समझदार हो गये इसलिए अपनी अहमियत को बनाने के लिए अहम को धारण करने लगे ,और ये सहायक हुआ दूरियां बढाने में
फिर क्या था ,रिश्ते ज्यो ही नकारे गये ,तन्हाई मौका पाकर लिपट गयी और हमें डसने लगी ,इस पीड़ा में करहाते हुए आंसू बहाते रहें
वाह रे चतुर चालाक इंसान ,समझदार हो कर तू और भी हो गया परेशान इससे अच्छा तू रहा बालक ,हृदय में जिसके बसते रहें भगवान
............................................................
इन्साफ पसंद हम ज्यादा

बेईमान हो गये ,

बचपना दिखाया तो

नादान हो गये

सबने कहा ये तो

नासमझ है यारो ,

उम्र है अधिक मगर

अक्ल बढ़ी नही प्यारो

सादगी सच्चाई का

ये सिला रहा ,

इस झूठी जिंदगी से

हमें भी गिला रहा


22 टिप्‍पणियां:

  1. बचपन में एक प्रवाह था, हम बाँध बनाने की चिन्ता में प्रवाह खो देते हैं।

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  2. कुछ बुरा कह दिया तो बिना कोई बैर रक्खे झट उससे माफ़ी मांग ली ,सोचने का भी अवसर नही लिया ,अहम से बिलकुल अछूते एवं मन के साफ़ ,कितनी खूबसूरत थी हर बात ,कितने कोमल थे हर भाव ।
    बचपन तो बचपन ही होता है..... बड़ी प्यारी सुंदर पोस्ट .... सारी बातें विचारणीय हैं ......

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  3. पोस्ट पढ़कर बचपन की कई यादें उमड़ कर आ गयीं !खुशियों से भरे वो सुहाने दिन ! आज सारी उपलब्धियों के बावजूद भी वैसी ख़ुशी नहीं मिलती !
    आपके लेख ने मन को छू लिया !

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  4. एक संवेदनशील रचना... बचपन के दर्द को समझा है आपने..

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  5. बड़े होने में बचपना कहाँ खो जाता है पता ही नहीं चल पाता.बहुत पहले गाना सुना करते थे 'बच्चे मन के सच्चे ,ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते अच्छे'. मुझे तो बच्चों से बतियाने में बड़ा आनन्द आता है.
    बचपने और भोलेपन से ओतप्रोत पोस्ट लिए बहुत बहुत बधाई.

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. जब हम बच्चे थे ,तब हमें बस उतना ही पता होता था ,जितना हमें किताबो में समझाया या पढाया जाता था या जो हमारे बड़े समझाते थे ,कि झूठ मत बोलो ,चोरी न करो ,बड़ो का आदर करो ,गुरुजनों का सम्मान करो ,इत्यादि इत्यादि ।....

    आपने बहुत सुन्दर शब्दों में बचपन की बात कही है। शुभकामनायें।

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  8. आपने बचपन की याद दिलादी काश !मै फिर से बच्चा बन पाता अच्छी लगी पोस्ट बधाई

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  9. वाह वो भी क्या दिन थे ......स्वतंत्र और आज सिर्फ बंधन वो भी शायद अपने ही बनाये हुए

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  10. आपने बहुत सुन्दर शब्दों में बचपन की बात कही है। धन्यवाद|

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  11. बच्चों जैसे कोमल और निष्पक्ष भाव अगर मन में आ जाये आदमी के तो कहने ही क्या.सारा भ्रष्टाचार और पक्षपात अपने आप ही ख़त्म हो जाये.
    बहुत सुन्दर विषय चुना है आपने कविता के लिए.

    You have written wonderfully.

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  12. ज्योति सिंह ..आपकी कवितायेँ आशा जगती है ..आपका लेखन और उन्नत हो ..बधाई

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  13. बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते फिरते तितली बन के |
    अब तो आजकल के बच्चे भी अभी से बड़े हो गये है |
    बहुत अच लेख और कविता |

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  14. ज्योतिजी
    सस्नेह अभिवादन !

    सच में … बचपन की बात ही और है
    आपके शब्दों ने बचपन की स्मृतियां ताज़ा करदीं … आभार !

    * श्रीरामनवमी की शुभकामनाएं ! *

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  15. इस झूठी जिंदगी से
    हमें भी गिला है यारो .....)):

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  16. बचपन न सही बचपन की याद सही। कुछ तो है जो हमे जीवित रहने का एहसास कराती रहती है।
    ..अच्छा लगा पढ़कर।

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  17. bacche sachmuch man ke sacche hote hain...par jaise jaise bare hote jaate...apni sacchayi khote jaate hain...

    bahut achha likha hai Jyoti ji aapne.

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  18. सच है कोई बचपन जैसी बाते करे तो लोग कहते है वह तो मूर्ख है,सीधे और सज्जन को भी मूर्ख कहा जाता है लोग कहते है इतना बडा हो गया मगर अकल घुटनों मे ही है बहुत अच्छी लगी रचना

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  19. आज आपके ब्लॉग पर बहुत कुछ पढ़ा ..लेकिन ये रचना बहुत ही दिलकश लगी ,
    इस खूबसूरत रचना पर बंधाई स्वीकारें

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