स्वाती की बूँद का
निश्छल निर्मल रूप ,
पर जिस संगत में
समा गई
ढल गई उसी अनुरूप ।
केले की अंजलि में
रही वही निर्मल बूँद ,
अंक में बैठी सीप के
किया धारण
मोती का रूप ,
और गई ज्यो
संपर्क में सर्प के
हो गई विष स्वरुप ।
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
बहुत सुंदर ... मनुष्य स्वाति की बून की तरह जिस रूप में चाहे ढल सकता है ...।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंसही बात
जवाब देंहटाएंवाह। गहरी बात।
जवाब देंहटाएंप्रकृति के रहस्यों को कौन जाने!
जवाब देंहटाएंकदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन .
जवाब देंहटाएंजैसी संगति पाइये वैसौ ही सुख दीन .
सचमुच संगति का प्रभाव स्थायी और अवश्यम्भावी होता है . सुन्दर अभिव्यक्ति ज्योति जी .
सुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंवाह!लाजवाब सृजन वह भी संगत का ..
जवाब देंहटाएंनिशब्द दी