रविवार, 12 जुलाई 2009

याद-ऐ-तन्हाई

दराजे-तन्हाई , दार-मदार हो जिसके

अश्को ने सदा साथ निभाया ।

करवटे दर- गुज़र करती रही

आँखों में भरे नींदों को ,

तन्हाई का ऐसा आलम

कब रात गई कब सहर हुई ।

दर्द भी हल दर्क* न सका , और

जागते को सुबह भी जगाने आई ।

(दर्क=पाना.)

10 टिप्‍पणियां:

  1. सच है...........tanhai में aansoo ही साथ देते हैं......... lajawaab rachna

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  2. आँखों में भरे नींदों को ,

    तन्हाई का ऐसा आलम

    कब रात गई कब सहर हुई ।
    बहुत खूब

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  3. दरीचा बेसदा कोई नहीं था,
    अगर्चे बोलता कोई नहीं था.
    इतनी ही गहरी है, आपकी गज़ल की तन्हाई भी. बहुत सुन्दर.

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  4. खुबसूरत शेर .

    तन्हाई का ऐसा आलम
    कब रात गई कब सहर हुई ।

    bdhai

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  5. अश्को ने सदा साथ निभाया ।

    क्षमा कीजिये ज्योति जी ,मैं आप से इतिफाक नहीं रखता ,मेरा तो कहना हैं ---------

    याराँ वो तो बेवफा हुआ,

    गम में जो आँसू ,

    आँखों से जुदा हुआ,

    पूरी यहाँ उपलब्ध है


    आंसू और तनहाई

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  6. जागते को सुबह भी जगाने आई
    waah waah..
    bahut khoob..
    kya baat hai, zabardat...

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  7. aap aai baharo ki tarah ,wafa ki ye ada bhi khoob rahi ,is niraale andaaz pe to hum fida ho gaye .

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