सोमवार, 20 जुलाई 2009

पहचान

कभी -कभी सोचती हूँ
सबके रास्ते चलूँ ,
जैसा सब करते है
वैसा मैं भी करुँ ,
जैसा सब कहते है
वैसा मैं भी कहूं ,
जैसे सब सोचते है
वैसे मैं भी सोचूँ ,
जैसा सब चाहते है
वैसा ही मैं चाहूं ।
क्या बुराई ऐसा करने में
आख़िर वो भी तो सही है ।
मगर ,फिर ज़मीर चीख उठती है ,
आत्मा धिक्कारने लगती है ।
तुम ग़लत हो
तुम ,तुम हो ,
सत्य हो ,यकीन हो ,उसूल हो
औरो के लिए सुकून हो ,
फिर दिशा भटक क्यो रहे हो ,
औरो -खातिर बदल क्यो रहे हो ,
पहचान अपनी यूँ खो दोगे ,
यहाँ तुम ,तुम नही रहोगे ।
तुम्हारे दर्द से बहुत अधिक
लोगो का भरोसा है कही ,
तुम्हारे सहारे चलती नाव उनकी
तुम हो उनकी आशाओ की नदी ।
अपने को बदलकर तुम ,
तुम कहाँ रहोगे ?
फिर सबका सामना
किस तरह करोगे ।
बदलना इतना आसान नही
औरो की तरह हम नही ,
संस्कार बदलते नही देते
ग़लत राह इख्तियार करने नही देते ।
डगमगाते इरादे संभालती हूँ ,
अंत में मैं ,मैं ही होती हूँ ।

7 टिप्‍पणियां:

  1. खुद को तलाशती सुन्दर रचना ........... अपनी पहचान बना कर रखने को बेताब .........

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  2. बदलना इतना आसान नही
    सही कहा है. बदलना कब आसान है.
    बहुत अच्छी रचना

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  3. तुम्हारे दर्द से बहुत अधिक
    लोगो का भरोसा है कही ,
    अति सुन्दर.

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  4. संस्कार ही तो अब लोगों को सही नहीं मिल पा रहा है.
    आप भाग्यशाली हैं कि आप को अपने परिवार से उच्च मूल्यों के संस्कार मिले.
    जिसको जैसे संस्कार मिलते हैं, उसके अन्तः और वाह्य करती और भावनाएं भी वैसे ही हो जाती हैं.
    प्रायः चालू किस्म के लोग उच्च संस्कारों के लोगों का अपना बन कर फायदा उठाने से नहीं चूकते और संस्कारों का नाम देकर शोषण भी करने से नहीं हिचकिचाते.............

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  5. बहुत ख़ूबसूरत और शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

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