गुरुवार, 23 जुलाई 2009

रुस्वाइयां

फासले बेरुखी के इतने लंबे क्यो हुए ,

हम अपनों के होकर भी अपने नही हुए ।



नाराजगी बरसो के दर- मियान भी जारी रही ,

वेवफाई हमने की नही पर वेवफाई हो गई ।



जिस सज़ा के हक़दार शायद हम न थे कभी ,

मामूली सी खता हमारी उम्र कैद क्यो बन गई ।



बात हमारी ही हमी से थी जुदा ,

सामने होकर भी ,पर्दे में रखी गई ।



चंद खुशियों के फैसले पर खतावार हो गए ,

बेगुनाह को इस गुनाह की सज़ा हो गई ।

11 टिप्‍पणियां:

  1. बात हमारी ही हमी से थी जुदा ,
    सामने होकर भी ,पर्दे में रह गई ।

    चंद खुशियों के फैसले से खतावर हो गए ,
    बेगुनाह को इस गुनाह की सज़ा हो गई ।

    ज्योति जी ,
    मैं आप से ही पूछ रहा हूँ क्या इस नज्म की तारीफ में कुछ कहना ज़ुरूरी है , वैसे अंत की लाईने
    चुनी हैं |

    अए दोस्त मत कुरेद जख्मों को अपने इतना भरने दे इन्हें ,
    नासूर न बना ऐसा कि टपकता रहे लहू तेरे मरने के बाद भी |

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  2. बहुत खूब लिखा आपने ज्योति जी!

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  3. कविता गीत और ग़ज़ल
    सब जगह नया हौसला है नयी सी बातें हैं आपकी

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  4. चंद खुशियों के फैसले से खतावर हो गए
    बेगुनाह को इस गुनाह की सज़ा हो गई

    वाह कितना हसीन लिखा है........ लाजवाब मज़ा आ गया

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  5. बहुत खूब लिखा आपने. ... लाजवाब मज़ा आ गया

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  6. बहुत सुंदर रचना लगी। वैसे मैं आपकी तारीफ भी कैसे कर सकता हूं। आप तो मानिंद शायरा हैं और हम लोग तो इस मामले में जीरो हैं।

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  7. nadim ji shukriya ,aapne jo samman diya main aabhari hoon ,parantu main aam hoon khas nahi .dharati se hi judi rahana chahati hoon ,aakash me udnaa nahi .

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