बुधवार, 5 मई 2010

मानवता का स्वप्न



कैसा दुर्भाग्य ? तेरा भाग्य


सर्वोदय की कल्पना ,


बुनता हुआ विचार,


स्वर्णिम कल्पना को आकार देता ,


खंडित करता , फिर


उधेड़ देता लोगों का विश्वास ,


नवोदय का आधार


फिर भी आंखों में अन्धकार


इच्छाओं की साँस का


घोटता हुआ दम ,


अन्तः मन का द्वंद प्रतिक्षण


भाव - विह्वल हो कांपता ,


अकुलाता भ्रमित - स्पर्श ,


टूट कर भी निःशब्द ,


मानवता का 'स्वप्न '

16 टिप्‍पणियां:

  1. बस ..बहुत ही गहरी बात कह गयी ...आप ,,,अच्छी लगी

    http://athaah.blogspot.com/

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  2. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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  3. lagata hai aap vyst rahee bahut dino se koi post nahee thee blog par...........
    Swasthy ka dhyan rakhiyega........

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  4. सच ही मानवता का दुर्भाग्य ही है....फिर भी अंधेरों में कहीं ना कहीं चमक की रोशनी बाकी है....बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  5. ये खंडित मानवता का स्वप्न, कभी पूर्ण होगा ये लगता नहीं है, मर्म को स्पर्श करने वाली अभिव्यक्ति ने भावविभोर कर दिया.

    रेखा श्रीवास्तव

    http://kriwija.blogspot.com/
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    http://merasarokar.blogspot.com

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  6. बहुत सुन्दर कविता. वैसे इतने लम्बे अन्तराल का कारण जान सकती हूं?

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  7. सर्वोदय की कल्पना बुनता हुआ विचार,

    स्वर्णिम कल्पना को आकार देता ,

    खंडित करता , फिर...उधेड़ देता लोगों का विश्वास.....
    ज्योति जी,
    हृदय की भावनाओं को
    प्रभावशाली शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने.
    बधाई स्वीकार करें.

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  8. भाव - विह्वल हो कांपता ,

    अकुलाता भ्रमित - स्पर्श ,

    टूट कर भी निःशब्द ,

    मानवता का 'स्वप्न ' ।

    -बहुत अच्छी कविता है ज्योति जी.

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  9. अकुलाता भ्रमित स्पर्श ........ विलक्षण प्रयोग ।
    रचना बहुत कुछ कहती है ।

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  10. बहुत सोच कर लिखी गई रचना है गहरे अर्थ लिये ।

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  11. नमस्कार, बहुत दिनों के बाद इस तरह कि कविता पढ्ने को मिली.धन्यवाद.

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  12. आपकी यह कविता पढ़कर टिप्पणी नहीं हो रही ...........................................काफी लम्बे अंतराल के बाद आपने लिखा .............मुझे भी कुछ कहने में वक़्त लगेगा...............

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