बुधवार, 7 जुलाई 2010

संगत


स्वाती की बूँद का

निश्छल निर्मल रूप ,

पर जिस संगत में

समा गई

ढल गई उसी अनुरूप

केले की अंजलि में

रही वही निर्मल बूँद ,

अंक में बैठी सीप के

किया धारण

मोती का रूप ,

और गई ज्यो

संपर्क में सर्प के

हो गई विष स्वरुप

मनुष्य आचरण जन्म से

कदापि , होता नही कुरूप ,

ढलता जिस साँचे में

बनता उसका प्रतिरूप ।


17 टिप्‍पणियां:

  1. bahut sacchee baat......kavita ke madhyam se bahut sunder abhivykti..........
    Aabhar .

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  2. waah ! कितनी गहन बात कह दी आपने! इंसान गर आँखे खोलके न जिए,satark na rahe, तो निश्चित गलत सांचे में ढल सकता है.

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  3. बहुत सुंदर!


    मनुष्य आचरण जन्म से

    कदापि , होता नही कुरूप ,

    ढलता जिस साँचे में

    बनता उसका प्रतिरूप ।

    सच्चाई को सुंदर शब्द दे दिए आप ने
    बधाई !

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  4. मनुष्य आचरण जन्म से

    कदापि , होता नही कुरूप ,

    ढलता जिस साँचे में

    बनता उसका प्रतिरूप ।
    बिलकुल सही बात कही। सुन्दर सब्देश देती रचना के लिये बधाई।

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  5. haan!! jab yahi bund seep ke muh me pahuch jati hai to moti ka rup dhar leti hai .....:)


    ek sarthak arth wali kavita....!

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  6. कितना सच कोई भी जन्म से ही
    बुरा या भला नहीं होता उसे तो साथ परिस्थितियां और मजबूरियां ही सब कुछ बनाती हैं

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  7. मनुष्य आचरण जन्म से

    कदापि , होता नही कुरूप ,

    ढलता जिस साँचे में

    बनता उसका प्रतिरूप
    क्या बात कही है ज्योतिजी आपने \सोलह आने सच |
    उपमा अलंकार का अच्छा प्रयोग किया है |
    सुन्दर कविता |

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  8. ज्योति जी ! संग साथ ही किसी को सनाथ या अनाथ करता है ।
    सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम् ।
    भर्तृहरि
    आपकी रचना प्रकृति की जय बोलती है । आपकी कविताएँ समाज का पथ प्रशस्त करेंगी ।

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  9. संगत का सही रूप दिखाया आपने ......!!

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  10. मनुष्य आचरण जन्म से

    कदापि , होता नही कुरूप ,

    ढलता जिस साँचे में

    बनता उसका प्रतिरूप ।
    -बहुत ही सच्ची बात कही आप ने.संगत का असर ही ऐसा है.
    -गहन भाव लिए यह बहुत अच्छी कविता है.

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