शुक्रवार, 15 मार्च 2019

खोज करती हूं उसी आधार की

फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना

गुण न वह इस बांसुरी की तान में ,

जो चकित करके कंपा डाले हृदय

वह कला पायी न मैंने गान में ।

जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह

ओस के आंसू बहा के फूल में ।

ढूंढती इसकी दवा मेरी कला

विश्व वैभव की चिता की धूल में ।

डोलती असहाय मेरी कल्पना

कब्र में सोये हुओ के ध्यान में ।

खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ

विरहणी कविता सदा सुनसान में ।

देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे !

व्यापिनी क्षणभंगुरता संसार की ।

एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय

खोज करती हूँ उसी आधार की । 

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ये रचना उन दिनों की है जब उच्चमाध्मिकस्तर में अध्यन करते हुए ,हमारी मित्र मंडली के ऊपर लिखने का जूनून सवार था ,हम सभी खूब लिखते रहे ,हमारी रचनाएँ किताबो में भी छपती रही ।

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