फूँक दे जो प्राण में उत्तेजना
गुण न वह इस बांसुरी की तान में ,
जो चकित करके कंपा डाले हृदय
वह कला पायी न मैंने गान में ।
जिस व्यथा से रो रहा आकाश यह
ओस के आंसू बहा के फूल में ।
ढूंढती इसकी दवा मेरी कला
विश्व वैभव की चिता की धूल में ।
डोलती असहाय मेरी कल्पना
कब्र में सोये हुओ के ध्यान में ।
खंडहरों में बैठ भरती सिसकियाँ
विरहणी कविता सदा सुनसान में ।
देख क्षण -क्षण में सहमती हूँ अरे !
व्यापिनी क्षणभंगुरता संसार की ।
एक पल ठहरे जहाँ जग हो अभय
खोज करती हूँ उसी आधार की ।
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ये रचना उन दिनों की है जब उच्चमाध्मिकस्तर में अध्यन करते हुए ,हमारी मित्र मंडली के ऊपर लिखने का जूनून सवार था ,हम सभी खूब लिखते रहे ,हमारी रचनाएँ किताबो में भी छपती रही ।
वाह !!बहुत खूब ....
जवाब देंहटाएंShukriya kamini ji
जवाब देंहटाएंhttps://dristikoneknazriya.blogspot.com
जवाब देंहटाएंआप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं ,स्नेह
शुक्रियां तहे दिल से आपका कामिनी जी
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना सखी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सखी सादर
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