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कथा -सार

कितने सुलझे फिर भी उलझे , जीवन के पन्नो में शब्दों जैसे बिखरे । जोड़ रहे जज्बातों को तोड़ रहे संवेदनाएं , अपनी कथा का सार हम ही नही खोज पाये । पहले पृष्ठ की भूमिका में बंधे हुए है , अब भी , अंत का हल लिए हुए आधे में है अटके । और तलाश में भटक रहे अंत भला हो जाये , लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में यह कथा मोड़ पे लाये ।

संगदिल

तुम तो पत्थर की मूरत हो नज़र आते , अजंता की सूरत हो , जहां प ्रेम तो झलकता बखूबी पर अहसास नही जिन्दा कही भी , हर बात बेअसर है तुम पर जो समझ से मेरे है ऊपर , हर बात पे आसानी से कह जाते कोई फर्क नही पड़ता हम पर , इस हाड़ मांस के पुतले में दिल तो नही , रह गया कही पत्थर ? तुम कह गए और हम मान गये यहाँ बात नही होती , पूरी दिलबर , क्या ऐसा भी संभव है यह प्रश्न खड़ा , मेरे मन पर , छोड़ो अब इसे जाने दो , देखेंगे क्या होगा आगे आने पर ।

इंदिरा जी .....

एक रौशनी मिलती थी हिंद को वह रौशनी कहाँ विलीन हुई , एक किरण जो वर्षो से पथ हमको रही दिखलाती , वह पथ तो है सामने अब भी पर किरण कहाँ विलीन हुई , रही हिंद की तुम बन 'माँ ' हिंसा की थी शत्रु महां , अब भी हिंद तुमको रहा बुला क्यो हो गई तुम हमसे जुदा । जिनके वियोग से हो व्याकुल सारी जनता हुई दीन , उनको खोकर पाने की हुई चाह सबकी असीम , इस जग को करके रौशन और हो गई तुम यही अमर , देश को चलाने वाली 'ज्योति ' जाने कहाँ अवलीन हुई । ...........????????????????? जय हिंद इंदिरा गाँधी के पुण्य तिथि पर इन कुछ शब्दों द्वारा मैं उन्हें श्रधांजली भेट कर कर रही हूँ ,यह रचना उस वक्त की लिखी हुई है जब उनकी दर्दनाक मौत हुई ,वो मंज़र आज भी ताज़ा है ,पूरा देश ही नही ये सारा जहां आसुओं में डूबा रहा और चारो तरफ़ गहरा सन्नाटा ,ज़मीन आसमान भी गले मिल कर उस दिव्य आत्मा के इस निर्मम हत्या पर शौक मना रहे थे और कितने लोग उनके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाये बहुत बातें याद आ रही मगर यही रोकती हूँ ,नारी जाती की इस शक्ति को शत -शत नमन ,'दिखा गई पथ , सीखा गई जो हमको सीख सिखानी थी .'

आपसी द्वेष

रिश्तों के आपसी द्वेष , परिवार का समीकरण ही बदल देते है , घर के क्लेश से दीवार चीख उठती है , नफरत इर्ष्या दीमक की भांति , मन को खोखला करती है , ज़िन्दगी हर लम्हों के साथ क़यामत का इन्तजार करती कटती है । और विश्वास चिथड़े से लिपट सिसकियाँ भरती है । ------------------------------- इस रचना की और पंक्तियाँ है मगर लम्बी होने की वज़ह से नही डाली हूँ .

बावरी हवा

हवा हुई बावरी दिशा बदल रही है , उड़ा के धूल आँखों में ले किधर जा रही है , ये दीवानी नही कुछ समझ पा रही , रुख बदल कर है हमें भटका रही । आज ये अपने आप में नही , आंधियो के वेश में मिलने आई कही , बचा ले आज उड़ने से कही , वर्ना वजूद अपने खो न दे हम कही ।

परछाईयाँ

ये मीलो की खामोशियाँ दर्द से घिरी तन्हाईयाँ , नींद की जुदाई याँ ये रात की कहानियाँ , कर दिया चेहरे ने जाहिर तेरी अपनी परेशानियां , बता रही है बखूबी तेरे यार की रुसवाइयां , माथे की दरारों में सिमटी है बेवफा इयाँ , सुलग रही साँसों में चिंता की चिंगारियां , और मन को तोड़ने लगी यकीं की लाठियाँ , बेरुखी दिखाने लगी अपनी ही परछाई याँ ।

जाल...

कह कर भी कुछ नही कहा , गुमसुम सा हुआ दिल क्यो यहाँ , कितने सवाल तुम्हारे होठों पे , देख रहे हम इन आंखों से , क्या बात हुई जो हम समझ न पाये , क्यो कहते - कहते तुम कह न पाये , अब तो कुछ बोल भी दो , इस भ्रम को कही तोड़ भी दो , तुम्हारी तो तुम्ही जानो , पर इस बन्दे पे रहम करो , संदेह का यह जाल बिछाकर , दूरी यू न बसर करो ।