संदेश

बदल गये ......

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इतने जख्म मिले कि अब संभल गये बात अब तुममे वो नही , बदल गये । एतबार के सहारे सफ़र आगाज़ किया जो छूट गया तुमसे तो , हम थम गये । फासले बढ़ते - बढ़ते . मिट गये कही रिश्ते जो दरम्यान रहे , नही रह गये । मौत को ढकेल जिजीविषा बढ़ गयी रात बड़ी और दिन अब सिमट गये । गमे - जुल्म जिंदगी पे ढाते कब तलक तुम जो बदले तो , हम भी बदल गये ।

रकीबो से उल्फत..........

रकीबो से रस्मे उल्फत निभाता कहाँ कोई है यहाँ शौक ऐसे दिल से फरमाता कहाँ कोई है । है , ये वो शै बाजारों में भीड़ है जिसकी मुफ्त में मिलने से भी अपनाता कहाँ कोई है । मगर सबसे ज्यादा यही रस्मे उल्फत निभाती है मोहब्बत से भी आगे बाजी दुश्मनी मार जाती है । दुश्मनों की हयात में चाहत नही होती कभी है इसमें वो अदा जो ठिकाना आप जमा लेती है । चाहे जितनी भी कर ले हिफाजत हम अपनी हर पहरे तोड़कर दास्तां अपनी गढ़ जाती है ।

दुर्दशा .........

धूल में सने हाथ कीचड़ से धूले पाँव , चेहरे पर बिखरे से बाल धब्बे से भरा हुआ चाँद , वसन से झांकता हुआ बदन पेट , पीठ में कर रहा गमन , रुपया , दो रुपया के लिए गिड़ गिडाता हुआ बच्चा - फकीर , मौसम की मार से बचने के लिए आसरा सड़क के आजू - बाजू , भूख से व्याकुल होता हाल नैवेद्य की आस में बढ़ता पात्र । ये है सुनहरा चमन वाह रे मेरा प्यारा वतन । अपने स्वार्थ में होकर अँधा करा रहा भारत दर्शन । " जहां डाल - डाल पे सोने की चिड़ियाँ करती रही बसेरा " बसा नही क्यों फिर से वो भारत देश अब मेरा ।

सही रंग ......

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कैनवास के कुछ पन्नो पर जब कभी - कभी हम ब्रश चलाते है , तो हाथ थम से जाते है , वो रंग नही उभरते जो हमारे अहसास में , ख्याल में घुले होते है , और बार - बार शायद यू कहे लगातार हमें पन्ने पलटने पड़ते है , फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंकने पड़ते है , सही रंग की तलाश में ।

भोर

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भोर की किरण फूटी हिम - कणों में चमक आई , कलियाँ लहर - लहर लहराई लक्ष्य सुलक्षित हुआ , मंजिल भी आगे चली अँधेरी राहो से घिरी मैं दिल को जगमगाती चली । कंटीली राहो को , पारकर आगे बढ़ी मिले कजा तो कजा पर भी मुस्कुरा कर चली , ज़माना याद करे ऐसे गुल खिलाकर चली । ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, यह रचना तबकी है जब मैं बनस्थली विद्यापीठ में आठवी कक्षा में पढ़ती रही और इसे वहां 9th में " महकती कलियाँ " नामक एक काव्य संग्रह में प्रकशित किया गया रहा । जो मित्र वहां से जुड़े रहे वो भलीभांति जानते होंगे । अल्पना जी आप के कारण ख़ास तौर पर डाला क्योंकि आप भी उस संस्था से कुछ वर्ष जुडी रही , ये पुरानी यादों का एक हिस्सा है जो रचना कम अहसास ज्यादा समेटे हुए है ।

पहचान ......

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मेरा वास्ता इंसानियत से रहा अहम से नही , मैं साधारण ही रहना चाहती बड़े होने की ख्वाहिश कतई नही , मेरी नजरों ने कितने ही नाम वालों के चेहरे पढ़े , जो पहचान अपनी अब भी ढूँढ रहे है । शोहरत की सोहबत में वजूद ही कही उनके , गुमनाम से हो गये । अनगिनत रिश्तों में भी तन्हाई है रौंद रही , क्योंकि उनकी तलाश मंजिल के आगे भी है , किसी उस शक्स की जो नाम से नही पहचान कायम करे , बल्कि इंसानियत की नींव बनाये ।

मुझे चाहिए फिर बचपन ....

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फिर नया जन्म होगा फिर सुनहरा आएगा बचपन , इन द्वन्दो- प्रतिद्वंदो से रहेगा फिर अछूता मन । बड़ा होना व्यर्थ है , समझदारी अनर्थ है , जीवन की उलझनों पर , छलता रहता मासूम मन । बड़ा भी होकर इंसान सिसकता रहा हर क्षण , जीवन के दलदल में धसता जाता कण -कण । बच्चा ही बना रहे इंसान , ऊँच- नीच से रहे अन्जान , नही भली इसके आगे की उम्र भेदभाव पनपते यहाँ हरदम । नही चाहिए और ये जीवन जहां आतंकित रहे ये मन , कैसे देखे ?मासूम निर्दोषो को छलनी होते हुए ये मन । करनी किसकी भरनी किसकी मानवता का हो रहा हनन , नही चाहिए और ये जीवन मुझे चाहिए फिर वही बचपन ।