तुम तो पत्थर की मूरत हो
नज़र आते , अजंता की सूरत हो ,
जहां प्रेम तो झलकता बखूबी
पर अहसास नही जिन्दा कही भी ,
हर बात बेअसर है तुम पर
जो समझ से मेरे है ऊपर ,
सब बात पे आसानी से कह जाते
कोई फर्क नही पड़ता हम पर ,
इस हाड़ मांस के पुतले में
दिल तो नही ,हो गया कही पत्थर ?
तुम कह गए और हम मान गये
यहाँ बात नही होती ,पूरी दिलबर ,
क्या ऐसा भी संभव है
यह प्रश्न खड़ा ,मेरे मन पर ,
छोड़ो अब इसे जाने दो ,देखेंगे
क्या होगा आगे आने पर ।
9 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-०२-२०२१) को 'वक्त के निशाँ' (चर्चा अंक- ३९७६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यबाद आपका अनिता जी
तुम तो पत्थर की मूरत हो
नज़र आते , अजंता की सूरत हो ,
जहां प्रेम तो झलकता बखूबी
पर अहसास नही जिन्दा कही भी
भावपूर्ण सुंदर रचना ❗🙏❗
अति सुन्दर भाव एवं कथ्य ।
बहुत खूब !
आपका आभार
बहुत सुंदर कविता ज्योति जी, और वो भी इस बसंत के मौसम में ..वाह
बहुत खूब
बहुत सुंदर ही अभिव्यक्ति ज्योति जी सादर नमस्कार
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