शनिवार, 30 अप्रैल 2011


अब गूंगे का जमाना नही

शोर शराबे का है ,

लाठी चलाओ

हल्ला मचाओ

जबरदस्ती काम बनबाओ ,

यदि कोई सज्जन विरोध कर

ये कहे

अरे भाई क्या गुंडागर्दी है ?

तभी बड़े रौब से

सीना तानकर कहो

जनाब

ये हमारा हक है

बस उसी का

इस्तेमाल कर रहें है ,

आप फिजूल में ही

एतराज कर रहें है ।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

गुमां नहीं रहा


जिंदगी का जिंदगी पे अधिकार नही रहा
इसीलिए उम्र का अब कोई हिसाब नही रहा ,

आज है यहाँ , कल जाने हो कहाँ
साथ के इसका एतबार नही रहा ,

मोम सा दिल ये पत्थर न बन जाये
हादसों का यदि यही सिलसिलेवार रहा ,

जुटाते रहें तमाम साधन हम जीने के लिए
मगर सांस जब टूटी साथ कुछ नही रहा ,

देख कर तबाही का नजारा हर तरफ
अब बुलंद तस्वीर का ख्वाब नही रहा ,

वर्तमान की काया विकृत होते देख
भविष्य के सुधरने का गुमां नही रहा ,

सोचने को फिर क्या रह जाएगा बाकी
हाथ में यदि कोई लगाम नही रहा l

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

बच्चे मन के सच्चे .....

बचपन इन बातों से हटकर अपनी उम्र गुजारे

जब हम बच्चे थे ,तब हमें बस उतना ही पता होता था ,जितना हमें किताबो में समझाया या पढाया जाता था या जो हमारे बड़े समझाते थे ,कि झूठ मत बोलो ,चोरी करो ,बड़ो का आदर करो ,गुरुजनों का सम्मान करो ,इत्यादि इत्यादि शिष्टाचार की इन बातों के अलावा हमारे समक्ष जिंदगी जीने के लिए कोई ऐसी शर्त नही होती थी जो हमारी स्वछंदता पर आरी चलाये ,विचारो को कुंठित करे तथा मन को बांधे
अपने हक के साथ ,मर्जी को पकड़ बढ़ते रहें ,जीते रहें धर्म की समझ , जाति की परख ,जिसका टिफिन अच्छा लगा खा लिया ,जो मन को भाया उसे दोस्त बना लिया ,हर भेद -भाव से अन्जान ,तहजीब किस चिड़िया का नाम है ये भी खबर नही रही इतना कौन सोचता रहा भला
दिमाग को भी आराम रहा उस वक़्त ,बेवजह कसरत समय -असमय पर नही करनी पड़ती रही ,जो सामने आया उसे चुनौती समझ स्वीकार करते गये और हर लम्हा मस्ती के साथ बिताते गये
कुछ बुरा कह दिया तो बिना कोई बैर रक्खे झट उससे माफ़ी मांग ली ,सोचने का भी अवसर नही लिया ,अहम से बिलकुल अछूते एवं मन के साफ़ ,कितनी खूबसूरत थी हर बात ,कितने कोमल थे हर भाव
एक खुला आकाश था सर पे और हरी - भरी धरती रही पाँव के नीचे हर कायदे -कानून से अनजान ,नाप -तौल से दूर
रिश्तों को जो बदसूरत बनाये और जिंदगी को बेरंग ऐसी समझदारी से बहुत किनारे
मगर उम्र के साथ -साथ हमारी समझ भी बढ़ने लगी ,हर मोड़ पर फर्क करना सिखाने लगी हम तहजीब के दायरों में सिमटने लगे ,विचारो को संकीर्ण करने लगे ,सांप्रदायिक दंगो में उलझने लगे ,सबसे अहम बात मैं के महत्व को जानने लगे ,तभी बंटवारे की योजना बनी ,इतने सारे भेद हमारे मन को भेदने लगे और हम घायल होने लगे तब हमें एक नई भाषा का अनुभव प्राप्त हुआ जिसे हम लकीरों की भाषा के नाम से जानते है ,और हम अपने को इसके अनुसार आंकने लगे
आपस में फर्क महसूस करते हुए बातों को दिल में जमा कर पत्थर की तरह हृदय को कठोर बनाने लगे ,भ्रम के जाल में उलझाते हुए हजारो मैल बेबुनियादी शिकायतों की एकत्रित कर मासूमियत ,अच्छाई को ढापते गये ,क्योंकि हम बड़े हो गये ज्यादा समझदार हो गये इसलिए अपनी अहमियत को बनाने के लिए अहम को धारण करने लगे ,और ये सहायक हुआ दूरियां बढाने में
फिर क्या था ,रिश्ते ज्यो ही नकारे गये ,तन्हाई मौका पाकर लिपट गयी और हमें डसने लगी ,इस पीड़ा में करहाते हुए आंसू बहाते रहें
वाह रे चतुर चालाक इंसान ,समझदार हो कर तू और भी हो गया परेशान इससे अच्छा तू रहा बालक ,हृदय में जिसके बसते रहें भगवान
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इन्साफ पसंद हम ज्यादा

बेईमान हो गये ,

बचपना दिखाया तो

नादान हो गये

सबने कहा ये तो

नासमझ है यारो ,

उम्र है अधिक मगर

अक्ल बढ़ी नही प्यारो

सादगी सच्चाई का

ये सिला रहा ,

इस झूठी जिंदगी से

हमें भी गिला रहा