शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

चाह

ले चल 'खुदा ' मुझे वहां

जहाँ दिल ये सुकूं पाये

प्रेम -भावना का आशियाना

हमारी ज़मीं बसाये ,

खुली फिजाओ में बाहे फैलाकर

आजाद खयालो के संग लहराये ।

मेरी तन्हाई , मेरे अरमान

मेरे साथी बन ,

ऊँची उड़ानो के पंख फैलाये ।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

खट्टी -मीठी बात

हर रोज़ ज़िन्दगी की एक


नई कहानी होती है ।


इस गुजरते वक्त की न जाने


क्या -क्या मेहरबानियाँ होती है ।





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कहाँ जाना था ,कहाँ से


गुजर गए हम ।


इस तूफानी रात के साये से


लिपट गए हम ।





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कई ख्वाहिशे इर्द -गिर्द समेटे


इंसान जीता है ,


किसी को तोड़ता व


किसी को जोड़ता है ।





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किसी बिम्ब को आप


प्रतिबिम्ब बना लीजिये ,


आइने में जिसे चाहे



उसे छुपा लीजिये ।





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अमृत

के प्यालो

में ,

विष भी ज़रा -ज़रा

गुनाहगारों में

शामिल हो रहे सभी यहाँ ।


गुरुवार, 23 जुलाई 2009

रुस्वाइयां

फासले बेरुखी के इतने लंबे क्यो हुए ,

हम अपनों के होकर भी अपने नही हुए ।



नाराजगी बरसो के दर- मियान भी जारी रही ,

वेवफाई हमने की नही पर वेवफाई हो गई ।



जिस सज़ा के हक़दार शायद हम न थे कभी ,

मामूली सी खता हमारी उम्र कैद क्यो बन गई ।



बात हमारी ही हमी से थी जुदा ,

सामने होकर भी ,पर्दे में रखी गई ।



चंद खुशियों के फैसले पर खतावार हो गए ,

बेगुनाह को इस गुनाह की सज़ा हो गई ।

सोमवार, 20 जुलाई 2009

पहचान

कभी -कभी सोचती हूँ
सबके रास्ते चलूँ ,
जैसा सब करते है
वैसा मैं भी करुँ ,
जैसा सब कहते है
वैसा मैं भी कहूं ,
जैसे सब सोचते है
वैसे मैं भी सोचूँ ,
जैसा सब चाहते है
वैसा ही मैं चाहूं ।
क्या बुराई ऐसा करने में
आख़िर वो भी तो सही है ।
मगर ,फिर ज़मीर चीख उठती है ,
आत्मा धिक्कारने लगती है ।
तुम ग़लत हो
तुम ,तुम हो ,
सत्य हो ,यकीन हो ,उसूल हो
औरो के लिए सुकून हो ,
फिर दिशा भटक क्यो रहे हो ,
औरो -खातिर बदल क्यो रहे हो ,
पहचान अपनी यूँ खो दोगे ,
यहाँ तुम ,तुम नही रहोगे ।
तुम्हारे दर्द से बहुत अधिक
लोगो का भरोसा है कही ,
तुम्हारे सहारे चलती नाव उनकी
तुम हो उनकी आशाओ की नदी ।
अपने को बदलकर तुम ,
तुम कहाँ रहोगे ?
फिर सबका सामना
किस तरह करोगे ।
बदलना इतना आसान नही
औरो की तरह हम नही ,
संस्कार बदलते नही देते
ग़लत राह इख्तियार करने नही देते ।
डगमगाते इरादे संभालती हूँ ,
अंत में मैं ,मैं ही होती हूँ ।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

होता नही बयां ,सब कुछ धुआं -धुआं

तुम आते हो एक धुन्ध की तरह

ये नज़र देख भी नही पाती ,

और तुम ओझल हो जाते

एक अस्पष्टता , एक दूरी का

आभास है इस क्षितिज में ,

और साथ ही ऐसा लगता है

मानो आहिस्ता -आहिस्ता

दूर खीँच रहा है ,एक दूजे से

इस अलगाव के संकेत में

जैसे कोई अंत नज़र रहा ,

और सारा अफसाना

पानी के साथ बहा जा रहा

खामोश सा यह अफ़साना

आपस में जो कहा -सुना ,

आज अनसुना ,अनकहा हो

क्यो मिटने है लगा

क्या साथ था इतना ?

या नाराज़गी है किसी शै की ,

जो धुंधली तस्वीर सी

हुए जाते हो

करने लगा संकेत क्या ये बयाँ

सब कुछ हो रहा यहाँ

क्यो धुआं -धुआं

जाने किसे क्या मंजूर है ,

हालात क्यो इतने मजबूर है

जहाँ खतम सा कुछ नही

फिर भी अंत दिख रहा ,

बात आपस में चलती नही

फिर भी फ़साना लिख रहा

कुछ बात है जरूर

ये किसे पता है ,

गुमां इस बात का

शायद जरा -जरा है

रविवार, 12 जुलाई 2009

याद-ऐ-तन्हाई

दराजे-तन्हाई , दार-मदार हो जिसके

अश्को ने सदा साथ निभाया ।

करवटे दर- गुज़र करती रही

आँखों में भरे नींदों को ,

तन्हाई का ऐसा आलम

कब रात गई कब सहर हुई ।

दर्द भी हल दर्क* न सका , और

जागते को सुबह भी जगाने आई ।

(दर्क=पाना.)

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

कुछ बूंदे कुछ फुआर

तफसीर जब बेबसी का हुआ
त्यों ही मुलाकात आंसुओ ने किया ,
आगाज़ होते किस्से गमे-तफसील के साथ
पहले उसके अश्को ने गला रुंधा दिया ।
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जिसके चेहरे पे थी हँसी ,
वो भी उदासी का सबब लिए हुए ।
कौन कहता है कमबख्त ,
है गम नही सबको घेरे हुए ।
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छेड़कर ज़िक्र तो करो
रखकर दुखती - रग पर हाथ ,
जख्म उभरता नही फिर कैसे
सोये हुए दर्द के साथ ।
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उकता गए ज़िन्दगी तेरी सज़ा से ,
अब तो इस क़ैद से रिहा दे ।
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तलाशे कहाँ सुकून ऐसी जगह बता दे ,
बेवज़ह दर्द बढ़ाने की अब जगह न दे ।
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ये चंद शेर अपने दोस्त की गुजारिश पे लिखी हूँ ,
ब्लॉग पे इसे नही लिखती ।
ये सब पुरानी रचना है जिसे सामने नही लाती ।

रविवार, 5 जुलाई 2009

विवशता


एक दर्द तुम्हें जो देती हूँ,

सौ दर्द से फ़िर मैं गुजरती हूँ

हालातों से बेबस होकर

कुछ फैसले ऐसे लेती हूँ

ये समझो केवल यह

तुम्हारे हिस्से मैं आया है,

जार-जार आसुंओं मैं डूब,

इसे मैंने भी अपनाया है

अपनी नासमझी का परिचय,

जब अपनी समझ से देती हूँ,

दर्द भरी राहों पर कितनी बार

फ़िर गिरती और सम्हलती हूँ.

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

आपबीती

तुम्हारे ओस रुपी अश्क से ये ,
नमी क्यो झलक रही है ?
कौन सी व्यथा की
ये लकीर खीँच रही है ।
किस दर्द भरी दास्ताँ को
बयां कर रही है ।
ऐ अजनबी ये तेरी आँखे ,
उदास लग रही है ।
खामोश निगाहें तुम्हारी
जुबां बन गई है ,
छिपाओ न और ज़ख्म
बहुत कुछ कह गई है ।
क्योकि हम सब के जो किस्से है ,
वही तो बुन रही है ।
आपबीती अपने आप को
दोहरा रही है ।