शुक्रवार, 25 जून 2010

कौन हो तुम ....?


वक़्त किसी के लिए
ठहरता नही ,
मगर तुम्हे उम्मीद है
कि वो ठहरेगा ,
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारे लिए ,
और इन्तजार करेगा
तुम्हारा ,
बड़ी बेसब्री से
कोई अलभ्य
शख्सियत हो ?
जो रुख हवाओं का
मोड़ रहे हो ?
वर्ना आदमी दौड़कर भी
पकड़ नही पाया
वक़्त को तां - उम्र ,
और तुम बड़े इत्मीनान से
सुस्ता रहे हो

शुक्रवार, 18 जून 2010

ख्वाब ...


ख्वाब एक
निराधार
बेल की तरह,
बेलगाम
ख्याल की तरह ,
असहाय डोलती
कल्पना है ,
जो हर वक़्त
कब्र खोद कर ही
ऊँची उड़ान भरती है ,
क्योंकि
उसका दम तोड़ना
निश्चित है

सोमवार, 14 जून 2010

चल तो लूंगी ..........


कब तक और ____
कहाँ तक
इन्तजार में खड़े रहकर
तुम्हारे सहारे को तकते रहें __
कभी तो
कहीं तो
तुम छोड़ ही दोगे
ऊब कर
बैसाखी तो हो नही
जो पास में रख लू
इतना ही काफी है
जो तुमने खड़ा कर दिया ___
दौड़ भले पाऊं
तुम्हारे बगैर ,
मगर चल तो लूंगी अब ,
धीरे -धीरे ही सही
गिरते -पड़ते लड़खड़ाते ,
एक दिन दौड़ने भी लगूंगी

शनिवार, 12 जून 2010

संशय


अनजान से रास्ते ,
पहचान लिए
साथ में ,
चल रहे हम
दिशा की ख़बर नही ,
चाह फिर भी ,
बढ़ने की ,
राह तो
कही नही ,
भूल रहे हम ।

मंगलवार, 8 जून 2010

गुजारिश


दुर्घटनाओ की उठी लहरों को
फना करो ,
आकांक्षा की वधू को
सँवरने दो ,
उठे ऐसी आंधी कोई
कश्ती का रुख मोड़ दे ,
उमंग भरी मौज की कश्ती
साहिल पे आने दो ,
कारवां जब निगाहों में
जुस्तजू सिमटी हो बाँहों में ,
ऐसे खुशनुमा माहौल में
किसी तूफ़ान का ज़िक्र करो

शनिवार, 5 जून 2010

कुछ यादे .....


प्रिय सखी हर बार की तरह इस वर्ष भी तुम्हे शब्दों का उपहार दे रही हूँ ,एक दौर गुजर गया आपस में बिछड़ने के बाद मगर यादे अटल और स्थिर है ,मिलना और जुदा होना हमारा , नियति के हाथ में रहा और इसलिए दोष किसी को नही दे सकते ,पर सुनहरी यादो को सहेज कर रक्खा जा सकता है ,एक उम्मीद के साथ और वही उम्मीद बरकरार है आज भी ,अहसास बूढ़े कहाँ होते कभी ,वो तो थमे हुए है इन्तजार में उसी मोड़ पर काश के साथ आज भी ,मुझे एक बौने की शक्ल लिए प्रतीत होते है और कानो में फुसफुसाते है मिलकर कभी सीधा करो और उसी वक़्त की तलाश जारी है जिससे उसे भी राहत मिले ,जहां साथ चलना था वहां अब एक पल का इन्तजार है ताकि आमने -सामने खड़े होकर उस सुनहरे क्षण को तराशते हुए ये तो कह तसल्ली कर सके कि इस परिवर्तन में उस वक़्त सा कुछ नही रहा जो अपने पास था जो अपने साथ था , एक बार स्वप्न में जब तुम मिली तब मैं तुम्हारे आगे सिर्फ यही सवाल उठाई कि 'ये दुनिया कितनी बदल गयी है ?और उत्तर में तुम कह उठी सच ,बिलकुल सच .और तभी मैं बोल उठी 'अब तो हम भी ,हम नही रहे ' आज इंसानियत और आदर्श के जिस्म पर जो गर्द जमी है बस उसे ही मिलकर हटाना है ,झाड़ना है जिससे एक झलक निहार कर संतोष कर ले यकीन कर ले कि रूह अभी भी सही सलामत है सिर्फ बदन ही मैले है अपनी बात यही रोकते हुए तुम्हे सालगिरह की ढेरो बधाइयां देती हूँ इस रचना के माध्यम से ,जहां भी हो खुश रहो ----
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व्यथा जिद पर अड़ी रही
बाँध कर दूरी को साथ ,
निशिदिन रहा ,अनमना सा मन
उम्मीदों की पाले आस ,
रूंधा कंठ क्रन्दन करता
कभी तो हो पूरी ,
मिलने की आस
करुणा से परिपूर्ण जीवन
सखी तुम बिन खाली आँगन ,
इन साँसों की अवधि पर जाने
कब तक रहे ,समय का साथ
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अपनी इस रचना के साथ दो पंक्तियाँ जगजीत सिंह की गजल की भी भेट स्वरुप तुम्हे --------
अपनी मर्ज़ी से कहाँ कही के हम है
रुख हवाओ का जिधर है ,
वही के हम है


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