शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

होकर भी साथ नहीं

ख्वाब  वही  

ख्वाहिश  वही 

अल्फाज  वही  

ज़ुबां  वही  ,

फिर  रास्ते  कैसे  

जुदा  है  सफ़र  के  ,


कदम  साथ  अपने 

दे  रहे  क्यों  नहीं  ।

कही  तो  कुछ  

खलिश  है  मन में 

जो  दिल  चाहकर  भी 

मिल  रहा  नहीं  । 

5 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

इस खलिश को दूर खुद की करना होता है ... जो है उसे पान जरूर चाहिए ... सफर एक हो सके ऐसा प्रयास होना चाहिए ...

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

मनचाहा नही मिलता हमेशा । ऐसे में टीस तो रहती है । और कविता बन जाती है ।

Rachana ने कहा…

apna socha hota kahan hai bas tis hi rah jati hai
rachana

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

वाह...सुन्दर कविता. लिखती रहो..

Swapnil Shukla ने कहा…

वाह ! बहुत बढ़िया प्रस्तुति . आभार . नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं .

कृ्प्या विसिट करें : http://swapniljewels.blogspot.in/2014/01/blog-post_5.html

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