कथा सार
कितने सुलझे फिर भी उलझे , जीवन के पन्नो में शब्दों जैसे बिखरे । जोड़ रहे जज्बातों को तोड़ रहे संवेदनाएं , अपनी कथा का सार हम ही नही खोज पाये । पहले पृष्ठ की भूमिका में बंधे हुए है , अब भी , अंत का हल लिए हुए आधे में है अटके । और तलाश में भटक रहे अंत भला हो जाये , लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में यह कथा मोड़ पे लाये ।
टिप्पणियाँ
bahut khoob!!
कहते हैं आईने में मुखडा अपनी खूबसूरती
का आकलन करने के लिए देखते हैं.
लेकिन यदि आईना देख शर्मिंदगी महसूस हो,
और दया धर्म की ओर चलने की भी सोचे
तो सच में कहेंगें जमीर जिन्दा है.
आजकल आप बहुत गूढ़ होती जा रही हैं,ज्योति जी.आपके १६ शब्दों पर जितना लिखा जाए उतना ही कम है.शब्दों की ज्योति प्रज्जवलित करती हैं आप.आभार.
bahut sunder ...
हार्दिक शुभकामनाएँ आपको.
बहुत जानदार रचना है यह तो …
बधाई !
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♥ होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार ! ♥
♥ मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !! ♥
आपको सपरिवार
होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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