कथा सार
कितने सुलझे फिर भी उलझे , जीवन के पन्नो में शब्दों जैसे बिखरे । जोड़ रहे जज्बातों को तोड़ रहे संवेदनाएं , अपनी कथा का सार हम ही नही खोज पाये । पहले पृष्ठ की भूमिका में बंधे हुए है , अब भी , अंत का हल लिए हुए आधे में है अटके । और तलाश में भटक रहे अंत भला हो जाये , लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में यह कथा मोड़ पे लाये ।
टिप्पणियाँ
Kavita bhi acchee bhaavon bhari laaayi ho..
sach waqt bahut kuchh badal deta hai.
sunder prastuti.
....बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश की गई है पोस्ट
संजय भास्कर
शब्दों की मुस्कुराहट
http://sanjaybhaskar.blogspot.com