शिल्प -जतन
नीव उठाते वक़्त ही
कुछ पत्थर थे कम ,
तभी हिलने लगा
निर्मित स्वप्न निकेतन ।
उभर उठी दरारे भी व
बिखर गये कण -कण ,
लगी कांपने खिड़की
सुनकर भू -कंपन ,
दरवाजे भी सहम गये
थाम कर फिर धड़कन ।
जरा सी चूक में
टूट रहे सब बंधन ,
शिल्पी यदि जतन करता ,
लगाता स्नेह और
समानता का गारा ,
तब दीवारे बच जाती
दरकने से और
संभल जाता ये भवन ।
टिप्पणियाँ
bahut badhiyaa!
badhaaee!
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तब दीवारे बच जाती
दरकने से और
संभल जाता ये भवन ।
मकाँ यदि हिलने लगे तो कहीं न कहीं शिल्प में ही कमी है
बहुत सुन्दर रचना
गहन भाव लिए हुए यह बहुत ही अच्छी कविता है.
प्रशंसनीय रचना ।
टूट रहे सब बंधन ,
शिल्पी यदि जतन करता ,
लगाता स्नेह और
समानता का गारा ,
तब दीवारे बच जाती
बहुत सुन्दर।
कबीर भी पछताए कि ‘जतन बिनु मृगनु खेत उजारे’। कवि संपूर्णता में देखता है। वह बार बार अवलोकन और विश्लेषण करता है..जतन के मार्ग तलाशता भी है और तराशता भी है।
अंधों को ज्योति दिखाने का धन्यवाद ज्योति जी।
इन रिश्तों को दरकने से बचाते बचाते ही ज़िन्दगी कट जाती है ......!!
बस कट ही जाती है ....जी नहीं जाती .......!!
http://charchamanch.blogspot.com/
बधाई स्वीकार करें...
जरा सी चूक में
टूट रहे सब बंधन..
ये चंद शब्द ही इसका प्रमाण हैं.
bahut hi kamaal ki rachna...
sambandhon ko bahut uchit bimb diya hai aapne...
aaj to main bas kuch kah nahi paa rahi hun..mujhe aapki rachna kitni acchi lagi...
BAHUT HI ACCHI...
SACH MEIN..!!
लगाता स्नेह और
समानता का गारा ,
तब दीवारे बच जाती
दरकने से और
संभल जाता ये भवन
स्नेह का अभाव व असमानता का प्रभाव ही तो दरका देता है रिश्तों का भवन...खूबसूरत रचना