दुर्घटनाओ की उठी लहरों को
फना करो ,
आकांक्षा की वधू को
सँवरने दो ,
उठे न ऐसी आंधी कोई
कश्ती का रुख मोड़ दे ,
उमंग भरी मौज की कश्ती
साहिल पे आने दो ,
कारवां जब निगाहों में
जुस्तजू सिमटी हो बाँहों में ,
ऐसे खुशनुमा माहौल में
किसी तूफ़ान का ज़िक्र न करो ।
7 टिप्पणियां:
आकान्क्षा की वधू को संवरने दो
बहुत खूब – बहुत सुन्दर
आप कविता में एब्सट्रेक्ट का खूबसूरत उपयोग करती हैं पढ़ते हुए एकाएक भाषा का प्रवाह ऐसा मोड़ देता है कि कथ्य मुखरित हो उठता है
किशोर जी एवं वर्मा जी आपको तहे दिल से शुक्रिया .
बहुत खुबसूरत अहसास .
आह!! वाह!!
आकांक्षा की वधु ..क्या बात है. अच्छी लगी आपकी रचना
नवनीत जी और वंदना जी बहुत बहुत धन्यवाद
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