कथा -सार
कितने सुलझे
फिर भी उलझे ,
जीवन के पन्नो में
शब्दों जैसे बिखरे ।
जोड़ रहे जज्बातों को
तोड़ रहे संवेदनाएं ,
अपनी कथा का सार
हम ही नही खोज पाये ।
पहले पृष्ठ की भूमिका में
बंधे हुए है , अब भी ,
अंत का हल लिए हुए
आधे में है अटके ।
और तलाश में भटक रहे
अंत भला हो जाये ,
लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में
यह कथा मोड़ पे लाये ।
टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर रचना लिखि आप ने धन्यवाद
लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में
यह कथा मोड़ पे लाये .
bahut hi gahri soch ke saath ek behtareen rachna.......
हम ही नही खोज पाये ।
पहले पृष्ठ की भूमिका में
बंधे हुए है , अब भी ,
बहुत सुन्दर.
हम ही नही खोज पाये ।
बहुत सही सुन्दर सार्थक रचना लिखी है आपने शुक्रिया
आपकी बात है सही,
ज़िन्दगी वो किताब है, जो ना तो पूरी ही लिखी गई और ना पूरी तरह से समझी ही गई....चल रहा है सिलसिला और चलता रहेगा...
ग़ालिब साहब ने भी फ़रमाया था- ज़िदंगी बीत गई जब जीने का अंदाज़ आया...!!!!
आपने कहा- लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में
यह कथा मोड़ पे लाये ....!!!
ये लगे रहने की कला ही है जो ज़िन्दगी को जीने लायक रखती है, और आपकी यही सोच आपकी रचना को सशक्त बनाती है!
-रेणु
achhi abhvykti