धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
Aapki sabhi rachnayen sulajhi huee....anbhavse tarashe huee..hoti hain..
आहिस्ते -आहिस्ते
आज फिसल गया ,
बहुत अच्छे भाव, इसी तरह बहुत कुछ पीछे छोड़कर हम आगे बढ़ते जाता हैं।
बहुत कुछ याद रक्खा ,
सहेजते -सहेजते
क्या कुछ न गवा दिया ,
बहुत सुंदर लिखा आप ने, बहुत गहरे भाव.
धन्यवाद
Khatas par aapakee tippanee ka intzar hai .
और याद बनकर
अतीत ठहर गया ।nice
क्या ज्योति जी इतनी मुश्किल से बाहर आ पाती हूँ और आप हैं कि फिर वहीँ भेज देती हैं
बहुत कुछ याद रक्खा ,
सहेजते -सहेजते
क्या कुछ न गवा दिया ,
जो वक्त पकड़ सका
वो संभल गया ,
जो मन न सह सका
वो पिघल गया ,
रेत की तरह
आहिस्ते -आहिस्ते
आज फिसल गया ,
और याद बनकर
अतीत ठहर गया ।
बहुत सादगी और सरलता के साथ जिन्दगी की गहराई को नापती रचना ... बहुत सुन्दर.... बधाई
बहुत कुछ याद रक्खा ,
सहेजते -सहेजते
क्या कुछ न गवा दिया ,
बहुत गहरे भाव हैं.
महावीर शर्मा
विचारों की उथल पुथल के लिये उपयुक्त शब्दों का चयन किया है आपने.
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
अच्छी रचना