बुधवार, 26 अगस्त 2009

मेरी चिंताए

मेरे ख्यालों की धारायें ,

जन - हित चिंता दर्शाती है ,

क्योंकि

मानव जीवन की पहेलियों के

संग उलझी रह जाती है

देख विवशता आदर्श की ,

निः शब्द स्तब्ध रह जाती है

क्या होगा आगे इस युग का ,

ये सोच काँप सी जाती है

ये चक्र विचारों का हमें ,

जाने किस ओर ले जाएगा

इस स्वर्ण धरा को भविष्य ,

किस रस से अलंकृत कर पायेगा

14 टिप्‍पणियां:

kshama ने कहा…

एक के बाद एक रचनाएँ पढ़ती जा रही हूँ ..सादगी और सरलता के कारण पढ़ना बड़ा ही अच्छा लग रहा है !

आपकी चिंताएँ बेहद जायज़ हैं ! किसी भी संवेदनशील वयक्ती के मनमे ये चिंता आना लाज़िम है ..

kshama ने कहा…

इतना ज़रूर कहूँगी ,कि , लोक तंत्र में लोग बड़ा महान काम कर सकते हैं ,गर सजग रहें तो ..देश की बागडोर अंतमे लोगों के हाथों में रहती है...सरकार भी आख़िर कार , इसी देशके लोगों से बनी है..!

vikram7 ने कहा…

देख विवशता आदर्श की ,
निः शब्द स्तब्ध रह जाती है ।
सुन्दर प्रस्तुति

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

देख विवशता आदर्श की ,
निः शब्द स्तब्ध रह जाती है ।

badhia likh rahihain jyoti, aise hi likhti rahen shubhkaamnayen.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

"ये चक्र विचारों का हमें ,
जाने किस ओर ले जाएगा ।
इस स्वर्ण धरा को भविष्य ,
किस रस से अलंकृत कर पायेगा ।"
चिंताएँ जायज़ हैं....अच्छी प्रस्तुति....बहुत बहुत बधाई...

आदित्य आफ़ताब "इश्क़" aditya aaftab 'ishq' ने कहा…

शमा जी से सहमत, मैं दरअसल १५ अगस्त के बहाने इधर-उधर कुछ हिंदुस्तानियत खोज रहा था ..............ब्लॉग पर ना आ सका ............. आपकी चिन्ताओ में मैं भी शरीक हूँ

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

ज्योति जी,

देख विवशता आदर्श की
निःशब्द स्तब्ध रह जाती है

आज के सन्दर्भ में बहुत ही सामायिक चिंतायें हैं और आदर्शों की लाचारी पर हम किंकर्तव्यविमूढ रह जाते हैं।

बहुत ही अच्छा और सच्च लिखा है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

मेरे ख्यालों की धारायें ,
जन - हित चिंता दर्शाती है ,
क्योंकि
मानव जीवन की पहेलियों के
संग उलझी रह जाती है ।

वाह ज्योति जी,
आपकी कविता में जनहित की चिन्ता दर्शाई गयी है मैं भी उसमें अपके साथ हूं…॥अच्छी लगी कविता।
पूनम

BrijmohanShrivastava ने कहा…

एक साहित्यकार की चिंता स्वाभाविक है क्योंकि कोई भी लहर या माहौल देश में बनता है तो उस समय उससे अविचलित रहना असंभव है | रचना में स्वाभाविक चिंता दर्शाई है क्योंकि मानव मात्र का सामूहिक कल्याण ही साहित्य का परम लक्ष्य होता है

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ये चक्र विचारों का हमें ,
जाने किस ओर ले जाएगा

SACH LIKHA HAI ....... VICHAARON KI UDAAN BAHOT LAMBI HOTI HAI ...ULAJH KAR RAH JAATI HAI ...

शरद कोकास ने कहा…

स्वाभाविक है आपकी चिंता, एक रचनाकार को इसे शब्द देना ही चाहिये ।

Urmi ने कहा…

बहुत ही सरल और सुंदर शब्दों में पिरोया है! साथ ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये रचना उम्दा है!

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

आपकी चिंता बहुत ही जायज़ है, मैं भी अपनी कलम प्रायः इसी के लिए ही उठता हूँ.
वैसे आदर्श तो सदा ही अलंकृत रहेंगें ही, भले ही उसका झंडा लेकर चलने वाले कितने ही कुचले जायें. यही शाश्वत सत्य है, त्याग बलिदान की धरती पर त्याग बलिदान ही मिसाल बना था, बना है और बनेगा.
धैर्य या कहें कि सहिषुनता बनाये रखे.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर

Amit K Sagar ने कहा…

बहुत सही लिखा है आपने. खूबसूरत. जारी रहें.
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