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जुलाई, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चाह

ले चल ' खुदा ' मुझे वहां जहाँ दिल ये सुकूं पाये । प्रेम - भावना का आशियाना हमारी ज़मीं बसाये , खुली फिजाओ में बाहे फैलाकर आजाद खयालो के संग लहराये । मेरी तन्हाई , मेरे अरमान मेरे साथी बन , ऊँची उड़ानो के पंख फैलाये ।

खट्टी -मीठी बात

हर रोज़ ज़िन्दगी की एक नई कहानी होती है । इस गुजरते वक्त की न जाने क्या -क्या मेहरबानियाँ होती है । ------------------------------------------- कहाँ जाना था ,कहाँ से गुजर गए हम । इस तूफानी रात के साये से लिपट गए हम । ++++++++++++++++++++++ कई ख्वाहिशे इर्द -गिर्द समेटे इंसान जीता है , किसी को तोड़ता व किसी को जोड़ता है । _______________________ किसी बिम्ब को आप प्रतिबिम्ब बना लीजिये , आइने में जिसे चाहे उसे छुपा लीजिये । >>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> अमृत के प्यालो में , विष भी ज़रा - ज़रा गुनाहगारों में शामिल हो रहे सभी यहाँ ।

रुस्वाइयां

फासले बेरुखी के इतने लंबे क्यो हुए , हम अपनों के होकर भी अपने नही हुए । नाराजगी बरसो के दर- मियान भी जारी रही , वेवफाई हमने की नही पर वेवफाई हो गई । जिस सज़ा के हक़दार शायद हम न थे कभी , मामूली सी खता हमारी उम्र कैद क्यो बन गई । बात हमारी ही हमी से थी जुदा , सामने होकर भी , पर्दे में रखी गई । चंद खुशियों के फैसले पर खतावार हो गए , बेगुनाह को इस गुनाह की सज़ा हो गई ।

पहचान

कभी -कभी सोचती हूँ सबके रास्ते चलूँ , जैसा सब करते है वैसा मैं भी करुँ , जैसा सब कहते है वैसा मैं भी कहूं , जैसे सब सोचते है वैसे मैं भी सोचूँ , जैसा सब चाहते है वैसा ही मैं चाहूं । क्या बुराई ऐसा करने में आख़िर वो भी तो सही है । मगर ,फिर ज़मीर चीख उठती है , आत्मा धिक्कारने लगती है । तुम ग़लत हो तुम ,तुम हो , सत्य हो ,यकीन हो ,उसूल हो औरो के लिए सुकून हो , फिर दिशा भटक क्यो रहे हो , औरो -खातिर बदल क्यो रहे हो , पहचान अपनी यूँ खो दोगे , यहाँ तुम ,तुम नही रहोगे । तुम्हारे दर्द से बहुत अधिक लोगो का भरोसा है कही , तुम्हारे सहारे चलती नाव उनकी तुम हो उनकी आशाओ की नदी । अपने को बदलकर तुम , तुम कहाँ रहोगे ? फिर सबका सामना किस तरह करोगे । बदलना इतना आसान नही औरो की तरह हम नही , संस्कार बदलते नही देते ग़लत राह इख्तियार करने नही देते । डगमगाते इरादे संभालती हूँ , अंत में मैं ,मैं ही होती हूँ ।

होता नही बयां ,सब कुछ धुआं -धुआं

तुम आते हो एक धुन्ध की तरह ये नज़र देख भी नही पाती , और तुम ओझल हो जाते । एक अस्पष्टता , एक दूरी का आभास है इस क्षितिज में , और साथ ही ऐसा लगता है मानो आहिस्ता - आहिस्ता दूर खीँच रहा है , एक दूजे से । इस अलगाव के संकेत में जैसे कोई अंत नज़र आ रहा , और सारा अफसाना पानी के साथ बहा जा रहा । खामोश सा यह अफ़साना आपस में जो कहा - सुना , आज अनसुना , अनकहा हो क्यो मिटने है लगा । क्या साथ था इतना ? या नाराज़गी है किसी शै की , जो धुंधली तस्वीर सी हुए जाते हो । करने लगा संकेत क्या ये बयाँ सब कुछ हो रहा यहाँ क्यो धुआं - धुआं । जाने किसे क्या मंजूर है , हालात क्यो इतने मजबूर है । जहाँ खतम सा कुछ नही फिर भी अंत दिख रहा , बात आपस में चलती नही फिर भी फ़साना लिख रहा । कुछ बात है जरूर ...

याद-ऐ-तन्हाई

दराजे- तन्हाई , दार-मदार हो जिसके अश्को ने सदा साथ निभाया । करवटे दर- गुज़र करती रही आँखों में भरे नींदों को , तन्हाई का ऐसा आलम कब रात गई कब सहर हुई । दर्द भी हल दर्क* न सका , और जागते को सुबह भी जगाने आई । (दर्क=पाना.)

कुछ बूंदे कुछ फुआर

तफसीर जब बेबसी का हुआ त्यों ही मुलाकात आंसुओ ने किया , आगाज़ होते किस्से गमे-तफसील के साथ पहले उसके अश्को ने गला रुंधा दिया । _______________________________ जिसके चेहरे पे थी हँसी , वो भी उदासी का सबब लिए हुए । कौन कहता है कमबख्त , है गम नही सबको घेरे हुए । _______________________ छेड़कर ज़िक्र तो करो रखकर दुखती - रग पर हाथ , जख्म उभरता नही फिर कैसे सोये हुए दर्द के साथ । ________________________ उकता गए ज़िन्दगी तेरी सज़ा से , अब तो इस क़ैद से रिहा दे । _______________________ तलाशे कहाँ सुकून ऐसी जगह बता दे , बेवज़ह दर्द बढ़ाने की अब जगह न दे । ______________________________ ये चंद शेर अपने दोस्त की गुजारिश पे लिखी हूँ , ब्लॉग पे इसे नही लिखती । ये सब पुरानी रचना है जिसे सामने नही लाती ।

विवशता

एक दर्द तुम्हें जो देती हूँ , सौ दर्द से फ़िर मैं गुजरती हूँ । हालातों से बेबस होकर कुछ फैसले ऐसे लेती हूँ । ये न समझो केवल यह तुम्हारे हिस्से मैं आया है , जार - जार आसुंओं मैं डूब , इसे मैंने भी अपनाया है । अपनी नासमझी का परिचय , जब अपनी समझ से देती हूँ , दर्द भरी राहों पर कितनी बार फ़िर गिरती और सम्हलती हूँ .

आपबीती

तुम्हारे ओस रुपी अश्क से ये , नमी क्यो झलक रही है ? कौन सी व्यथा की ये लकीर खीँच रही है । किस दर्द भरी दास्ताँ को बयां कर रही है । ऐ अजनबी ये तेरी आँखे , उदास लग रही है । खामोश निगाहें तुम्हारी जुबां बन गई है , छिपाओ न और ज़ख्म बहुत कुछ कह गई है । क्योकि हम सब के जो किस्से है , वही तो बुन रही है । आपबीती अपने आप को दोहरा रही है ।