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अप्रैल, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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अब गूंगे का जमाना नही शोर शराबे का है , लाठी चलाओ हल्ला मचाओ जबरदस्ती काम बनबाओ , यदि कोई सज्जन विरोध कर ये कहे अरे भाई क्या गुंडागर्दी है ? तभी बड़े रौब से सीना तानकर कहो जनाब ये हमारा हक है बस उसी का इस्तेमाल कर रहें है , आप फिजूल में ही एतराज कर रहें है ।

गुमां नहीं रहा

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जिंदगी का जिंदगी पे अधिकार नही रहा इसीलिए उम्र का अब कोई हिसाब नही रहा , आज है यहाँ , कल जाने हो कहाँ साथ के इसका एतबार नही रहा , मोम सा दिल ये पत्थर न बन जाये हादसों का यदि यही सिलसिलेवार रहा , जुटाते रहें तमाम साधन हम जीने के लिए मगर सांस जब टूटी साथ कुछ नही रहा , देख कर तबाही का नजारा हर तरफ अब बुलंद तस्वीर का ख्वाब नही रहा , वर्तमान की काया विकृत होते देख भविष्य के सुधरने का गुमां नही रहा , सोचने को फिर क्या रह जाएगा बाकी हाथ में यदि कोई लगाम नही रहा l

बच्चे मन के सच्चे .....

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बचपन इन बातों से हटकर अपनी उम्र गुजारे जब हम बच्चे थे , तब हमें बस उतना ही पता होता था , जितना हमें किताबो में समझाया या पढाया जाता था या जो हमारे बड़े समझाते थे , कि झूठ मत बोलो , चोरी न करो , बड़ो का आदर करो , गुरुजनों का सम्मान करो , इत्यादि इत्यादि । शिष्टाचार की इन बातों के अलावा हमारे समक्ष जिंदगी जीने के लिए कोई ऐसी शर्त नही होती थी जो हमारी स्वछंदता पर आरी चलाये , विचारो को कुंठित करे तथा मन को बांधे । अपने हक के साथ , मर्जी को पकड़ बढ़ते रहें , जीते रहें । न धर्म की समझ , न जाति की परख , जिसका टिफिन अच्छा लगा खा लिया , जो मन को भाया उसे दोस्त बना लिया , हर भेद - भाव से अन्जान , तहजीब किस चिड़िया का नाम है ये भी खबर नही रही । इतना कौन सोचता रहा भला । दिमाग को भी आराम रहा उस वक़्त , बेवजह कसरत समय - असमय पर नही करनी पड़ती रही , जो स...