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मई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

यकीन

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यकीं बन कर आए चाहो तो रोक लो , वरना क्या जाने कब धुँआ बन उड़ जाए । इस एतबार का कुछ कहा न जाए , कुछ प ल पहले साथ आगे धोखा दे जाए ।

एक वो रात

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वो राते लम्बी होती है जब तन्हाई डसती है , यादे बोझिल होती है तब ये नींद कहाँ पे सोती है , ये रात जो मुझ पे भारी है आँखों-आँखों में कटती है , करवट की आहट होती है लिए दर्द मचलती रहती है , नींद को तलाशते , आँखों में सुबह होती है ।

माँ ..... ........

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एक वृक्ष की तरह अटल , स्थिर , शांत धीर - गंभीर सी , ये माँ अपने बच्चो को सदा फल वो छाया देती ही रही , इशारों में ही हर जरूरत , समझ कर पूरी करती रही । बिना कहे दर्द सभी भांप कर , एक मरहम बनकर चोंट हमारी मिटाती रही । खुद मुरझा कर हमारे अरमान सींचती रही । इतनी सच्ची ' माँ ', अपने सिवा सबका ख्याल रखने वाली । ऐसी माँ की क्या इच्छा है ? कभी जानने की भी हमने कोशिश की । मन में है कई बाते उसकी , कभी पूछो तो आकाश बन जाएगा । ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, जिसने जिंदगी के साथ - साथ जीने का तजुर्बा भी दिया , उसके अहसास , जज्बात को , समझने की फुर्सत , हमें नही । ..................................................... माँ तुम्हे शत - शत नमन

मानवता का स्वप्न

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कैसा दुर्भाग्य ? तेरा भाग्य सर्वोदय की कल्पना , बुनता हुआ विचार , स्वर्णिम कल्पना को आकार देता , खंडित करता , फिर उधेड़ देता लोगों का विश्वास , नवोदय का आधार फिर भी आंखों में अन्धकार । इच्छाओं की साँस का घोटता हुआ दम , अन्तः मन का द्वंद प्रतिक्षण । भाव - विह्वल हो कांपता , अकुलाता भ्रमित - स्पर्श , टूट कर भी निःशब्द , मानवता का ' स्वप्न ' ।