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अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इंदिरा जी .....

एक रौशनी मिलती थी हिंद को वह रौशनी कहाँ विलीन हुई , एक किरण जो वर्षो से पथ हमको रही दिखलाती , वह पथ तो है सामने अब भी पर किरण कहाँ विलीन हुई , रही हिंद की तुम बन 'माँ ' हिंसा की थी शत्रु महां , अब भी हिंद तुमको रहा बुला क्यो हो गई तुम हमसे जुदा । जिनके वियोग से हो व्याकुल सारी जनता हुई दीन , उनको खोकर पाने की हुई चाह सबकी असीम , इस जग को करके रौशन और हो गई तुम यही अमर , देश को चलाने वाली 'ज्योति ' जाने कहाँ अवलीन हुई । ...........????????????????? जय हिंद इंदिरा गाँधी के पुण्य तिथि पर इन कुछ शब्दों द्वारा मैं उन्हें श्रधांजली भेट कर कर रही हूँ ,यह रचना उस वक्त की लिखी हुई है जब उनकी दर्दनाक मौत हुई ,वो मंज़र आज भी ताज़ा है ,पूरा देश ही नही ये सारा जहां आसुओं में डूबा रहा और चारो तरफ़ गहरा सन्नाटा ,ज़मीन आसमान भी गले मिल कर उस दिव्य आत्मा के इस निर्मम हत्या पर शौक मना रहे थे और कितने लोग उनके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाये बहुत बातें याद आ रही मगर यही रोकती हूँ ,नारी जाती की इस शक्ति को शत -शत नमन ,'दिखा गई पथ , सीखा गई जो हमको सीख सिखानी थी .'

आपसी द्वेष

रिश्तों के आपसी द्वेष , परिवार का समीकरण ही बदल देते है , घर के क्लेश से दीवार चीख उठती है , नफरत इर्ष्या दीमक की भांति , मन को खोखला करती है , ज़िन्दगी हर लम्हों के साथ क़यामत का इन्तजार करती कटती है । और विश्वास चिथड़े से लिपट सिसकियाँ भरती है । ------------------------------- इस रचना की और पंक्तियाँ है मगर लम्बी होने की वज़ह से नही डाली हूँ .

बावरी हवा

हवा हुई बावरी दिशा बदल रही है , उड़ा के धूल आँखों में ले किधर जा रही है , ये दीवानी नही कुछ समझ पा रही , रुख बदल कर है हमें भटका रही । आज ये अपने आप में नही , आंधियो के वेश में मिलने आई कही , बचा ले आज उड़ने से कही , वर्ना वजूद अपने खो न दे हम कही ।

परछाईयाँ

ये मीलो की खामोशियाँ दर्द से घिरी तन्हाईयाँ , नींद की जुदाई याँ ये रात की कहानियाँ , कर दिया चेहरे ने जाहिर तेरी अपनी परेशानियां , बता रही है बखूबी तेरे यार की रुसवाइयां , माथे की दरारों में सिमटी है बेवफा इयाँ , सुलग रही साँसों में चिंता की चिंगारियां , और मन को तोड़ने लगी यकीं की लाठियाँ , बेरुखी दिखाने लगी अपनी ही परछाई याँ ।

जाल...

कह कर भी कुछ नही कहा , गुमसुम सा हुआ दिल क्यो यहाँ , कितने सवाल तुम्हारे होठों पे , देख रहे हम इन आंखों से , क्या बात हुई जो हम समझ न पाये , क्यो कहते - कहते तुम कह न पाये , अब तो कुछ बोल भी दो , इस भ्रम को कही तोड़ भी दो , तुम्हारी तो तुम्ही जानो , पर इस बन्दे पे रहम करो , संदेह का यह जाल बिछाकर , दूरी यू न बसर करो ।

रिश्ते...

रिश्तों को जरूरत न बनाओ रिश्तों की जरूरत बन जाओ । रिश्तों को खूबसूरत बनाओ रिश्तों को यू न ठुकराओ । तभी रिश्तें उम्र दराज हो पायेंगे विषैले होने से हम बचा पायेंगे । कम जिंदगी भी लम्बी होगी अफ़सोस की कही जगह न होगी ।

दर्द

रास्ते - रास्ते बिखरे दर्द , क्यो हमसफ़र बन गया हमारा , क्योकर हम खामोश है कांटो से लिपट कर भी , क्या कहे कैसे कहे ओह एक उफ़ भी नही , ये उलझन सुलझे कैसे जाल बुनता जा रहा रोज ही , गहरी टीस उठती है मन में मगर लिपटाये रह गई चुप्पी , न गिला कोई न शिकवा अफ़सोस में रह गए सभी । बदल गये कितनी करवटे उठ गयी कितनी सिलवटे , जाने क्या मजबूरी रही इस धुंध से निकले नही , उम्र भर एक आस पर कांटो से समझौता रहा , दामन सारे छिल गये पाँव में छाले पड़ गये , तहजीब को हम साथ लिए उम्र अपनी पार कर गये , दर्द के हमसफ़र बनकर वफ़ा के अंदाज में जिए , ज़िन्दगी तेरे साथ चलने के हुए अंदाज़ कुछ निराले ही , टूटते तो रहे निरंतर ही मगर बिखरे आज तक नही ।

कुछ ऐसे भी रिश्ते .होते .....

जाने क्या तुमसे रिश्ता है जो कभी विरोध नही कर पाया मन । किस जन्म का साथ निभाने आया , ये अन्तः मन का बंधन । उम्र सारी गुजर गई एक अजनबी पहचान सी , फिर भी जिद्दी मन ये बोले है नही आज का ये , है ये ,बरसो का बंधन । टीस उठी और आंखों में आंसुओ का छाया घना सघन । ये मिलन जुदाई बनकर क्यो आई क्यो तड़पे हर पल मन । इतने गहरे रिश्ते का मध्यम सा है ,क्यो सावन ? हम -तुम ढूंढ रहे जो मौसम क्यो होता नही, उसका आगमन । उन बहार भरे रंगों के संग झूमेगा ,किस दिन मन का आँगन । हलचल भरे ख्यालो में उलझन भरे सवालों में , भारी होता जाये मन बढ़ जाये दिल की धड़कन । -------------------------------------------- ये कुछ पंक्तियाँ डायरी से ली गई है ,इसलिए इस रचना को कविता के रूप में न ले क्योंकि लिखते वक्त कविता का रूप ले ली थी मगर लिखी गई थी दूसरे रूप में ,इस कारण एक दिन के लिए डाल रही हूँ । क्योकि साल गिरह है , इस अद्भुत रिश्ते का । और अपने ब्लॉग पर अंकित करने के उद्देश्य से भी ।

ज्योति -पर्व ....

चित्र
दीपो के इस पर्व में है तम की हार , बिखरी जो उज्जवल ज्योति ठिठुर गया अन्धकार , जादू भरे उजाले में जीने का आधार , उम्मीदों के है दामन फैले लिए दुआएं हज़ार , करे कामना इस दीपोत्सव हो रौशन घर -संसार , लक्ष्मी -गणेश जी आप पधारे ले आँगन में शुभ -लाभ , स्वागत में आज सजे हुए घर -घर के द्वार । ------------------------------------- दीपो का ये पर्व सबके लिए मंगलमय हो ,शुभ दीपावली

बगावत ..

पर तो निकले नही , उड़ना हमें आया नही । चलना जरूर सीखा, पर रास्ता नज़र आया नही , राह जब हम ढूँढने लगे एतराज सबने जताया यूँ ही , वेवजह की बातों में हमें सताया भी यूँ ही , 'आ ह को चाहिए एक उम्र असर होने तक ', यही ख्याल लिए फिर इरादों ने कदम बढ़ाया वही , तंग आकर तानो से जाग उठी, जोश में बगावत भी ।

आस.....

मैं भी तुम्हारी तरह तंगदिल होती , और यही चाहत पालती , प्यासे को बिन मांगे प ानी मिल जाये , मैं मांग के पीता नही इसका अर्थ ये तो हरगिज नही कि मैं प्यासा नही । ऐसी ख्वाहिशों पे क्या रिश्तों की उम्र होती यही , जो आज है कही । एक दूजे से पीने की आस में , प्यासे रह जाते इजहार भी न होता सपने बुनने से पहले उधड़ जाते ।

उदीप्त

घटता नही क्रम तम का क्यो होता नही सवेरा , निशा सदा तेरा ही आमंत्रण क्यो स्वीकारे मन मेरा । उर में बंदी बनी रही सब आशाएं - इच्छाए हमारी । कुसुम की मुस्कुराहट पे क्यो लगा शूलों का पहरा । मेरी पीड़ा की ज्वालाये ठुकराती रजनी का आमंत्रण , सूरज के संग बांहे थामें मुक्त हुई अब छोड़ अँधेरा ।

सवाल बेहिसाब ..........

जिसे चाहा हमेशा ज़िन्दगी की तरह वो रह गया आज अजनबी बनकर । गिला करे भी तो किसी से क्या कहकर कल जो अपना था , उससे दगा किया नही जाता । जो गुजर गई वो दास्ताँ अपनी थी औरो का विश्वास हिलाया नही जाता । वफ़ा उसकी साथ अब भी है मेरे यह यकीन मेरे पन्ने से मिटाया नही जाता । दुनिया के दस्तूर में हुआ वो भी शामिल ख़िलाफ़ होकर उससे , जिया नही जाता । कुछ बात है उसमे ऐसी आज भी जरूर जुदा होकर भी वो जुदा नही किया जाता । दिल को तरकीने से अब बहला लिया हमने ये सोच दुनिया - ए- बेसबात में इकसां नही रहता ।

चाँद सिसकता रहा

चाँद सिसकता रहा शमा जलती रही , खामोशी को तोड़ता हुआ दर्द कराहता रहा , और फ़साना उंगुलियां कलम से दोहराती रही , आँखों के अश्क में शब्द सभी नहाते रहे , रात के अँधेरे में ख्याल लड़खड़ाते रहे , एक लम्बी आह में शब्द ठहर गए , उंगुलियां बेजान हो साथ कलम का छोड़ गई , दर्द से लिपट असहाय बनी रही , और लिखे क्या बात लिखने की रही नहीं , और फ़साने गढे नहीं रह गये अधूरे कही , शून्य सा समा बाँध चाँद भी बेबस रहा । चाँद सिसकता रहा ........... ।

अमूल्य भेट

कल गांधी जी एवं शास्त्री जी जैसे दो महापुरुषों की जन्मतिथि है . उन्हें शत - शत मेरा नमन . उनकी तरह मैं भी सर्वोदय की कल्पना लिए आगे बढती रही . और अच्छा देने और करने के प्रयास में सदा जुटी रही और साथ ही सबसे यही कामना करती हूँ . इसलिए मेरे सामने जब देने - लेने का सवाल उठता है तो मैं मौन हो जाती हूँ क्योंकि जो चाहिए वो अमूल्य है और शायद न मिले . इसलिए कुछ और लेने से मना कर देती हूँ . सब की शिकायत यही रहती है हमें इतना देती हो लेती नहीं कुछ . और मैं सोचने लगती कि देने वाला लेने क्या जाने ? जो चाहिए मिलेगा नहीं , पर आज सोची इस रचना द्वारा जाहिर कर दूं , अपनी इच्छा सबसे कह दूं ----------------- सब पूछे मुझसे , मैं क्या चाहूँ पर जो मै चाहूँ , कैसे पाऊं ? दोगे वो क्या जो मैं चाहूँ पर नामुमकिन को कैसे मांगू , अपने से आगे न सोचे सच्चे मन से न बोले , व्यर्थ अधिकार ले मन इत - उत फिर क्यों डोले , जीवन व्यर्थ लुटा कर क्या हासिल कर ...