इंदिरा जी .....
एक रौशनी मिलती थी हिंद को वह रौशनी कहाँ विलीन हुई , एक किरण जो वर्षो से पथ हमको रही दिखलाती , वह पथ तो है सामने अब भी पर किरण कहाँ विलीन हुई , रही हिंद की तुम बन 'माँ ' हिंसा की थी शत्रु महां , अब भी हिंद तुमको रहा बुला क्यो हो गई तुम हमसे जुदा । जिनके वियोग से हो व्याकुल सारी जनता हुई दीन , उनको खोकर पाने की हुई चाह सबकी असीम , इस जग को करके रौशन और हो गई तुम यही अमर , देश को चलाने वाली 'ज्योति ' जाने कहाँ अवलीन हुई । ...........????????????????? जय हिंद इंदिरा गाँधी के पुण्य तिथि पर इन कुछ शब्दों द्वारा मैं उन्हें श्रधांजली भेट कर कर रही हूँ ,यह रचना उस वक्त की लिखी हुई है जब उनकी दर्दनाक मौत हुई ,वो मंज़र आज भी ताज़ा है ,पूरा देश ही नही ये सारा जहां आसुओं में डूबा रहा और चारो तरफ़ गहरा सन्नाटा ,ज़मीन आसमान भी गले मिल कर उस दिव्य आत्मा के इस निर्मम हत्या पर शौक मना रहे थे और कितने लोग उनके जाने के सदमे को बर्दाश्त नही कर पाये बहुत बातें याद आ रही मगर यही रोकती हूँ ,नारी जाती की इस शक्ति को शत -शत नमन ,'दिखा गई पथ , सीखा गई जो हमको सीख सिखानी थी .'