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जियो और जीने दो ....

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बात अपनी होती है तब जीने की उम्मीद को रास्ते देने की सोचते है वो , बात जहाँ औरो के जीने की होती है , वहाँ उनकी उम्मीद को सूली पर लटका बड़े ही आहिस्ते -आहिस्ते कील ठोकते हुये दम घोटने पर मजबूर करते है । रास्ते के रोड़े , हटाने की जगह बिखेरते क्यों रहते हैं ? ........................................ इसका शीर्षक कुछ और है मगर यहाँ मैं बदल दी हूँ क्योंकि यह एक सन्देश है उनके लिए जो किसी भी अच्छे कार्य में सहयोग देने की जगह रोक -टोक करना ज्यादा पसंद करते .

शिल्प -जतन

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नीव उठाते वक़्त ही कुछ पत्थर थे कम , तभी हिलने लगा निर्मित स्वप्न निकेतन । उभर उठी दरारे भी व बिखर गये कण - कण , लगी कांपने खिड़की सुनकर भू - कंपन , दरवाजे भी सहम गये थाम कर फिर धड़कन । जरा सी चूक में टूट रहे सब बंधन , शिल्पी यदि जतन करता , लगाता स्नेह और समानता का गारा , तब दीवारे बच जाती दरकने से और संभल जाता ये भवन ।

पत्थरों का ये स्रोत ..

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क्या लिखूं क्या कहूं ? असमंजस में हूँ , सिर्फ मौन होकर निहार रही बड़े गौर से पत्थर के  छोटे - छोटे टुकड़े , जो तुमने बिखेर दिये है मेरे चारो तरफ , और सोच रही हूँ कैसे बीनूँ इनको ? एक लम्बा पथ तुम्हे बुहार कर दिया था , मैंने और तुमने उसे जाम कर दिया कंकड़ पत्थर से । पर यहाँ सहनशीलता है कर्मठता है और है इन्तजार करने की शक्ति , ठीक है , तुम बिखेरो हम हटाये , आखिर कभी तो हार जाओगे , और बिखरे पत्थर सहेजने आओगे , और खत्म होगा पत्थरों का ये स्रोत । ""''"""""""""""""""""""" मौन होकर निहार रही हूँ  तेरे बिखेरे पत्थरों को ... मैं तो फिर भी चल लुंगी  कभी जो चुभ जाये तेरे ही पैरों में  पुकार लेना .... शायद तुम वो दर्द  सहन न कर पो .....

संगत

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स्वाती की बूँद का निश्छल निर्मल रूप , पर जिस संगत में समा गई ढल गई उसी अनुरूप । केले की अंजलि में रही वही निर्मल बूँद , अंक में बैठी सीप के किया धारण मोती का रूप , और गई ज्यो संपर्क में सर्प के हो गई विष स्वरुप । मनुष्य आचरण जन्म से कदापि , होता नही कुरूप , ढलता जिस साँचे में बनता उसका प्रतिरूप ।
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शाम से लेकर सुबह का इन्तजार इन दो पहरों में दूरियाँ हुई हजार । फासले बढ़ते रहे लेकर तेज रफ़्तार बेताबी करती रही दिल को बेकरार । मिटने लगी दूरियाँ आने से उसके आज बढ़ने लगी बैचेनियाँ हर आहट के साथ । नजदीकियां करने लगी ख़ामोशी इख्तियार देखकर हम उनको सामने करेंगे क्या बात । मिनटों में यहाँ आये कितने सारे ख्याल फुर्सत में भी रहे जिनसे हम बेख्याल । जाने क्या रंग लाएगी अपनी ये मुलाकात पत्थर न हो जाये दिल के सब जज़्बात ।