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मार्च, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रकीबो से उल्फत..........

रकीबो से रस्मे उल्फत निभाता कहाँ कोई है यहाँ शौक ऐसे दिल से फरमाता कहाँ कोई है । है , ये वो शै बाजारों में भीड़ है जिसकी मुफ्त में मिलने से भी अपनाता कहाँ कोई है । मगर सबसे ज्यादा यही रस्मे उल्फत निभाती है मोहब्बत से भी आगे बाजी दुश्मनी मार जाती है । दुश्मनों की हयात में चाहत नही होती कभी है इसमें वो अदा जो ठिकाना आप जमा लेती है । चाहे जितनी भी कर ले हिफाजत हम अपनी हर पहरे तोड़कर दास्तां अपनी गढ़ जाती है ।

दुर्दशा .........

धूल में सने हाथ कीचड़ से धूले पाँव , चेहरे पर बिखरे से बाल धब्बे से भरा हुआ चाँद , वसन से झांकता हुआ बदन पेट , पीठ में कर रहा गमन , रुपया , दो रुपया के लिए गिड़ गिडाता हुआ बच्चा - फकीर , मौसम की मार से बचने के लिए आसरा सड़क के आजू - बाजू , भूख से व्याकुल होता हाल नैवेद्य की आस में बढ़ता पात्र । ये है सुनहरा चमन वाह रे मेरा प्यारा वतन । अपने स्वार्थ में होकर अँधा करा रहा भारत दर्शन । " जहां डाल - डाल पे सोने की चिड़ियाँ करती रही बसेरा " बसा नही क्यों फिर से वो भारत देश अब मेरा ।

सही रंग ......

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कैनवास के कुछ पन्नो पर जब कभी - कभी हम ब्रश चलाते है , तो हाथ थम से जाते है , वो रंग नही उभरते जो हमारे अहसास में , ख्याल में घुले होते है , और बार - बार शायद यू कहे लगातार हमें पन्ने पलटने पड़ते है , फाड़कर रद्दी की टोकरी में फेंकने पड़ते है , सही रंग की तलाश में ।

भोर

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भोर की किरण फूटी हिम - कणों में चमक आई , कलियाँ लहर - लहर लहराई लक्ष्य सुलक्षित हुआ , मंजिल भी आगे चली अँधेरी राहो से घिरी मैं दिल को जगमगाती चली । कंटीली राहो को , पारकर आगे बढ़ी मिले कजा तो कजा पर भी मुस्कुरा कर चली , ज़माना याद करे ऐसे गुल खिलाकर चली । ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, यह रचना तबकी है जब मैं बनस्थली विद्यापीठ में आठवी कक्षा में पढ़ती रही और इसे वहां 9th में " महकती कलियाँ " नामक एक काव्य संग्रह में प्रकशित किया गया रहा । जो मित्र वहां से जुड़े रहे वो भलीभांति जानते होंगे । अल्पना जी आप के कारण ख़ास तौर पर डाला क्योंकि आप भी उस संस्था से कुछ वर्ष जुडी रही , ये पुरानी यादों का एक हिस्सा है जो रचना कम अहसास ज्यादा समेटे हुए है ।

पहचान ......

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मेरा वास्ता इंसानियत से रहा अहम से नही , मैं साधारण ही रहना चाहती बड़े होने की ख्वाहिश कतई नही , मेरी नजरों ने कितने ही नाम वालों के चेहरे पढ़े , जो पहचान अपनी अब भी ढूँढ रहे है । शोहरत की सोहबत में वजूद ही कही उनके , गुमनाम से हो गये । अनगिनत रिश्तों में भी तन्हाई है रौंद रही , क्योंकि उनकी तलाश मंजिल के आगे भी है , किसी उस शक्स की जो नाम से नही पहचान कायम करे , बल्कि इंसानियत की नींव बनाये ।

मुझे चाहिए फिर बचपन ....

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फिर नया जन्म होगा फिर सुनहरा आएगा बचपन , इन द्वन्दो- प्रतिद्वंदो से रहेगा फिर अछूता मन । बड़ा होना व्यर्थ है , समझदारी अनर्थ है , जीवन की उलझनों पर , छलता रहता मासूम मन । बड़ा भी होकर इंसान सिसकता रहा हर क्षण , जीवन के दलदल में धसता जाता कण -कण । बच्चा ही बना रहे इंसान , ऊँच- नीच से रहे अन्जान , नही भली इसके आगे की उम्र भेदभाव पनपते यहाँ हरदम । नही चाहिए और ये जीवन जहां आतंकित रहे ये मन , कैसे देखे ?मासूम निर्दोषो को छलनी होते हुए ये मन । करनी किसकी भरनी किसकी मानवता का हो रहा हनन , नही चाहिए और ये जीवन मुझे चाहिए फिर वही बचपन ।

नारी तुझसे ये संसार ......

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नारी दुर्गा का अवतार शक्ति जिसमे असीम अपार , नारी शारदा सा रूप संवार बहाये प्रेम - दया की धार , नारी लक्ष्मी का ले अधिकार संयम से चलाये घर संसार , त्रिशक्ति को करके धारण करती विश्व का ये कल्याण । " जहां होता नारी का सम्मान वही बसते है श्री भगवान ", सदियों पुरानी ये कहावत अटल सत्य के है समान । हृदय के गहरे सागर से पाया सबने अथाह प्यार , ममता , करुणा , दया क्षमा धात्री तेरी महिमा का नही पार , हे जगजननी , कष्ट निवार णी हाथ तेरे अन्नपूर्णा का भण्डार , फिर, तुझ पर अन्यायों का क्यों होता रहता है प्रहार ? बिन नारी घर भूत का डेरा नारी से सुशोभित घर - द्वार , जो हारी इसकी उम्मीदे समझो , है ये हमारी हार , जो हारी इसकी उम्मीदे समझो ये है विश्व की हार । /////////////////////////////// जहाँ स्नेह मिला वही बाती सी जली मोम की तरह गल - गल जलती रही । ??????????????????????????????? ...
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कुछ इज़हार है , कुछ इकरार है , अहसासों का ये दरबार है , चाहो तो , कुछ तुम भी कह लो , दिल के बोझ को कम कर लो , फिर ऐसे मौके कब आयेंगे , जहाँ हाल दिल के कह पायेंगे , दोष न देना ऐसे मौके को , ये खता न ख़ुद से होने दो ।

आशा की किरण

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तुम दुआ हो हमारे या अँधेरी रात में जगमगाते सितारे , हवा से जहाँ बुझ गए दिए , वहां जुगनू बन राह रो़शन किए , तुम्हारी हक अदायगी व दीवानगी पे , हमने सर ही नही , दिल भी झुका दिये ।

यदि ऐसा ........

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तुम जो हमें समझ कही पाते , बेहतर हमसे कुछ नही पाते , खलिश कोई दिल में न उठती , शक को फिर जगह न मिलती , चाँद - सितारे जमीं पे सजते , रात हर फिर तारोवाली होती , शमा के लबो पे रौशन हंसी रहती , जन्नत से बेहतर जमीं ये होती , मिलकर जो संग दास्तां बुनती , हर कदम पर साथ जो चलती , पर सभी के ख्याल " यदि " पर रुक जाते , न कुछ कह पाते न समझा पाते ।