खड़ी खड़ी मैं देख रही,
मीलों की खामोशी,
नहीं रही अब इस शहर में,
पहली सी हलचल सी।
खामोशी का अफसाना क्यों ,
ये वक्त लगा है लिखने,
जख्मों से हरा-भरा ये शहर लगा है दिखने।
देकर कोई आवाज़ कहीं से
ये तोड़ो लम्बी खामोशी।
बेहतर लगती नहीं कहीं
गलियों में फिरती खामोशी.

टिप्पणियाँ

बहुत सुन्दर रचना.बस इसी प्रकार लिखती रहें...बधाई.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कुछ दिल ने कहा

अहसास.......

एकता.....