शनिवार, 9 अक्तूबर 2010


है कठिन जमाना लिए कठिन दर्द
अन्याय की दीवारों में ,
जख्मो की बेड़िया पड़ी हुई है
परवशता के विचारो में ।
रोते -रोते शमा के अश्क
बदल गये अब सिसकियो में ,
हर दर्द उठाती है मुस्कान
इस बेदर्द जमाने में ।
छुपाये नही छिपते है आंसू
हकीकत के इन आँखों में ,
एक जीत नजर आती है जिंदगी
जीवन के इन हारो में ।
रात को रौशन कर देगी कभी
चाँदनी अपने उजालो में ।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

सब का मालिक एक है


ईश्वर हो या अल्लाह

वो कहता बस यही ,

हमे न चाहिए कोई जमीं

और न इमारत बड़ी -बड़ी

मैं तो हूँ कण -कण में

जीवन के हर धड़कन में ,

याद करोगे जिस जगह

मिलूंगा तुम्हे मैं वही

नाम हमे चाहे जो दे दो

इबादत तो है एक ही ,

बाँट रहे हो क्यों हमको

हम तो है सबके ही

मैं तो नेक इरादों में

मानवता की राहो में ,

प्रेम के निर्मल भावो में

इंसानियत से बढ़कर

नही होता धर्म कोई

धर्म सभी होते है सच्चे

अहसास सभी होते एक से ,

वही इनायत बरसेगी

फर्क जहां न होगा कोई

हमने तो नही सिखाया

तुम्हे करना भेद कभी ,

न कोई हिन्दू न कोई मुस्लिम

है केवल यहाँ इंसान सभी ।
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इस रचना को फैसले के पहले ही डालना था ,इसे मैं भोपाल में लिखी रही जब वहां गयी थी ,उस समय गणेश चतुर्थी रही मगर लौटने के बाद सोचते -सोचते समय निकल गया फिर संकोच में नही डाल सकी ,मगर कल अपने मित्र के यहाँ जाकर जब इसे पढायी तो उसने कहा तुरंत डाल दो ,और आज डाल पायी ।