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सर्दी ने अहसास दिलाया मौसम जाड़े का है आया ,
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हम -तुम ------- एक ही रास्ते के दो मोड़ है , जो पलट कर उसी राह ले आते है जहां आरम्भ और अंत एक हो जाते है , फिर सोचने की कही कोई गुंजाइश नही रह जाती , फैसले की कोई सुनवाई हो ही नही पाती l
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ख्यालो की दौड़ कभी थमती नही कलम को थाम सकू वो फुर्सत नही , जब भी कोशिश की पकड़ने की वक़्त छीन ले गया , एक पल को रूकने नही दिया , सोचती हूँ इन्द्रधनुषी रंग सभी क्या बादल में ही छिप कर रह जायेंगे , या जमीं को भी कभी हसीं बनायेंगे l

वन्दे मातरम्

आज़ादी क्या है ? इसकी सच्ची परिभाषा क्या है , इसे साबित कैसे करे ? ऐसे ढेरो प्रश्न इस जश्न के सामने आते - आते जहन में उठने लगते है जिनके जवाब और मायने हम बहुत हद तक जानते है और समझते भी है , क्योंकि बचपन से ही हमें इस बिषय पर काफी समझाया और पढाया जाता है , कूट - कूट कर देश प्रेम की भावनाये मन में भरी जाती है , उसके प्रति क्या जिम्मेदारिया है हमारी , इस बात का अहसास कराया जाता है । पर जैसे जैसे बड़े होते जाते है इसे अपनी जिम्मेदारियों में , शान - शौकत के रंग ढंग में नज़र अंदाज कर देते है , और मौके मिलने पर स्कूली ज्ञान को ही बयां कर के अपने को सच्चे देश भक्त के रूप में सामने लाते है । लेकिन हर बात कह देने और बयां कर देने से ही सम्पूर्ण नही हो जाती । वो मुक्कमल हो इसके लिए कर्म का योगदान बेहद जरूरी है , तभी उसे उचित तरीके से परिभाषित किया जा सकता है और सम्मानित भी । इसके लिए अपने राष्ट्र की अमूल्य धरोहर को

रक्षाबंधन

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रंग बिरंगे धागों का ये सुन्दर त्यौहार , नयनो में सपने संजोये लौट आया फिर आज . भाई के स्नेह में लिपटी बहने हो रही निहाल , निकल पड़ी है सज के जाने को वो बाज़ार , भीनी सी मुस्कान लिए रही राखियों को निहार , सबसे सुन्दर कौन सी राखी उलझ गई लिए ख्याल , भईया खुश हो जाये मेरा कलाई पर किसे बाँध , भाव विभोर हो उठी है वो करके बचपन ध्यान , नयनो में सावन की बूंदे झूम पड़ी लिए धार , अपने मन के खुशियों को नही पा रही वो संभाल , चन्दन ,मीठा ,अक्षत ,दीप साथ में लिए राखी -रुमाल ढेरो उमंगें भर कर मन में सजा रही बहन राखी के थाल , निभा रहें राखी के बंधन मिल भाई बहन आज , सावन की हरियाली में लहलहा रहा पावन प्यार , रक्षाबंधन का आया है पावन सुन्दर त्यौहार l

अनुभव

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छोटी सी दो रचनाये --------------------------- महंगाई से अधिक भारी पड़ी हमको हमारी ईमानदारी , महंगाई को तो संभाल लिया इच्छाओ से समझौता कर , मगर ईमानदारी को संभाल नही पाये किसी समझौते पर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, मेरी हर हार जीत साबित हुई , बीते समय की सीख साबित हुई l

रास्ते

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चलना शुरू किया तो सफ़र कही थमा नही , कहाँ तक जाते है रास्ते गुमां ये कभी हुआ नही . तुम मत कहना भूले से किसी और राह चलने को , क्योंकि आकर यहाँ तक हमें अब रास्ते अपने बदलना नही . ................................................. दोस्तों मैं लगभग दो महीने बाद अपने ब्लॉग पर आई हूँ ,यहाँ आकर देखी तो काफी रचनाये सबकी डल चुकी है ,मैं अपनी व्यस्तता की वजह से उन्हें बराबर नही पढ़ पाई जिसके लिए मन में अफ़सोस है ,मगर ये सिलसिला कल से फिर शुरू करने जा रही ,बारी -बारी सबके ब्लॉग पर आ रही हूँ ,मुझे भी कहाँ चैन है बिना पढ़े ,कब से राह तलाश रही थी ,मगर वक़्त हाथ ही नही लग रहा था ,आज तो जिद्द में जीत हासिल की और इन्तजार भी खत्म किया ,बस कुछ ही लम्हों की दूरी पर हूँ ,अब तक की रुकावट के लिए माफ़ी चाहती हूँ ,आप सभी बंधुओ से ,.मेरे पीछे भी आप मेरे ब्लॉग से जुड़े रहें इस स्नेह के लिए दिल से आभारी हूँ .धन्यबाद .

तन्हा

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भ यभीत हूँ कही ये युग बहुत ऊंचाई तक पहुँचने के प्रयास में नई तकनीक की तलाश में अपना वजूद न मिटा दे , महाप्रलय के शिकंजे में फंस कर अपना आधार न गवा दे , आज हमें सिर्फ तन्हा होने का ख्याल डस रहा है , कल सारी धरती ही तन्हा न हो जाये ______ l

सन्नाटा

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चीर कर सन्नाटा श्मशान का सवाल उठाया मैंने , होते हो आबाद हर रोज कितनी जानो से यहाँ फिर क्यों इतनी ख़ामोशी बिखरी है क्यों सन्नाटा छाया है यहाँ , हर एक लाश के आने पर तुम जश्न मनाओ आबाद हो रहा तुम्हारा जहां यह अहसास कराओ .

कुछ मन की

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जिंदगी वफ़ा की सूरत जब इख्तियार करती है हर कदम पर तब नए इम्तिहान से गुजरती है . .............................. ... कितनी सुबह निकल गई कितनी राते गुजर गई कुछ बाते पहली तारीख सी आज भी है यही कही . '''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''' मंजिल इतनी आसान होती तो क्योकर तलाशते क्यों उम्र अपनी सारी यू दाव पर लगाते . ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; जो मजा सफ़र में है वो मंजिल में कहाँ थम जाती है जिंदगी सब कुछ पाकर यहाँ .

उम्मीद

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आइने में सभी सूरते एक सी नज़र आती है किसे कहे यहाँ अपना यही ख्याल लिए रह जाती है , तभी वो चेहरा दिखता है जिसका कोई अक्स भी नही , है वो निराकार , लेकिन मेरी कल्पनाओ को करता है वही साकार .

ममतामयी माँ

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माँ मेरी माँ और सबकी माँ जन्म से लेकर अंतिम श्वास तक जरूरत सबकी माँ जीवन की हर छोटी -छोटी बातों में याद बहुत आती माँ उसकी निश्छल ममता , करूणा है और कहाँ उसके आँचल तले जैसा है नही घनी छाँव यहाँ निस्वार्थ सर्वस्व लुटाने वाली त्याग की मूर्ती माँ मीठी लोरी से पलकों में स्वप्न सुन्दर भरती माँ सहलाकर नर्म हाथो से ठंडी राहत देती माँ बालो को कंघी से सुलझाने वाली माँ बड़े प्यार से निवाले को मुंह में भरती माँ उसके हाथों सा स्वाद मिलेगा हमें कहाँ , बच्चो के हर सुख -दुख को भांपने वाली माँ कहे बिना ही मन के हर भाव को पढ़ लेती माँ सबकी चिन्ताओ को अपने हृदय में समेटे माँ जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाती माँ जन्नत उसके चरणों में है यहाँ बसा हुआ ईश्वर का ही रूप है दुनिया की हर माँ . ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, मातृ दिवस के पावन पर्व पर सबको ढेरो बधाई ,सभी माओ को नमन .सदा उसके स्नेह से मन हमारा सींचता रहें और जीवन हरा भरा रहें ,हम उनको आदर दे उनकी जरूरतों को समझे उनकी आह नही उनकी दुआए ले ,क्योंकि माँ
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अब गूंगे का जमाना नही शोर शराबे का है , लाठी चलाओ हल्ला मचाओ जबरदस्ती काम बनबाओ , यदि कोई सज्जन विरोध कर ये कहे अरे भाई क्या गुंडागर्दी है ? तभी बड़े रौब से सीना तानकर कहो जनाब ये हमारा हक है बस उसी का इस्तेमाल कर रहें है , आप फिजूल में ही एतराज कर रहें है ।

गुमां नहीं रहा

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जिंदगी का जिंदगी पे अधिकार नही रहा इसीलिए उम्र का अब कोई हिसाब नही रहा , आज है यहाँ , कल जाने हो कहाँ साथ के इसका एतबार नही रहा , मोम सा दिल ये पत्थर न बन जाये हादसों का यदि यही सिलसिलेवार रहा , जुटाते रहें तमाम साधन हम जीने के लिए मगर सांस जब टूटी साथ कुछ नही रहा , देख कर तबाही का नजारा हर तरफ अब बुलंद तस्वीर का ख्वाब नही रहा , वर्तमान की काया विकृत होते देख भविष्य के सुधरने का गुमां नही रहा , सोचने को फिर क्या रह जाएगा बाकी हाथ में यदि कोई लगाम नही रहा l

बच्चे मन के सच्चे .....

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बचपन इन बातों से हटकर अपनी उम्र गुजारे जब हम बच्चे थे , तब हमें बस उतना ही पता होता था , जितना हमें किताबो में समझाया या पढाया जाता था या जो हमारे बड़े समझाते थे , कि झूठ मत बोलो , चोरी न करो , बड़ो का आदर करो , गुरुजनों का सम्मान करो , इत्यादि इत्यादि । शिष्टाचार की इन बातों के अलावा हमारे समक्ष जिंदगी जीने के लिए कोई ऐसी शर्त नही होती थी जो हमारी स्वछंदता पर आरी चलाये , विचारो को कुंठित करे तथा मन को बांधे । अपने हक के साथ , मर्जी को पकड़ बढ़ते रहें , जीते रहें । न धर्म की समझ , न जाति की परख , जिसका टिफिन अच्छा लगा खा लिया , जो मन को भाया उसे दोस्त बना लिया , हर भेद - भाव से अन्जान , तहजीब किस चिड़िया का नाम है ये भी खबर नही रही । इतना कौन सोचता रहा भला । दिमाग को भी आराम रहा उस वक़्त , बेवजह कसरत समय - असमय पर नही करनी पड़ती रही , जो स