कभी -कभी सोचती हूँ सबके रास्ते चलूँ , जैसा सब करते है वैसा मैं भी करुँ , जैसा सब कहते है वैसा मैं भी कहूं , जैसे सब सोचते है वैसे मैं भी सोचूँ , जैसा सब चाहते है वैसा ही मैं चाहूं । क्या बुराई ऐसा करने में आख़िर वो भी तो सही है । मगर ,फिर ज़मीर चीख उठती है , आत्मा धिक्कारने लगती है । तुम ग़लत हो तुम ,तुम हो , सत्य हो ,यकीन हो ,उसूल हो औरो के लिए सुकून हो , फिर दिशा भटक क्यो रहे हो , औरो -खातिर बदल क्यो रहे हो , पहचान अपनी यूँ खो दोगे , यहाँ तुम ,तुम नही रहोगे । तुम्हारे दर्द से बहुत अधिक लोगो का भरोसा है कही , तुम्हारे सहारे चलती नाव उनकी तुम हो उनकी आशाओ की नदी । अपने को बदलकर तुम , तुम कहाँ रहोगे ? फिर सबका सामना किस तरह करोगे । बदलना इतना आसान नही औरो की तरह हम नही , संस्कार बदलते नही देते ग़लत राह इख्तियार करने नही देते । डगमगाते इरादे संभालती हूँ , अंत में मैं ,मैं ही होती हूँ ।