तुम आते हो एक धुन्ध की तरह
ये नज़र देख भी नही पाती ,
और तुम ओझल हो जाते ।
एक अस्पष्टता , एक दूरी का
आभास है इस क्षितिज में ,
और साथ ही ऐसा लगता है
मानो आहिस्ता -आहिस्ता
दूर खीँच रहा है ,एक दूजे से ।
इस अलगाव के संकेत में
जैसे कोई अंत नज़र आ रहा ,
और सारा अफसाना
पानी के साथ बहा जा रहा ।
खामोश सा यह अफ़साना
आपस में जो कहा -सुना ,
आज अनसुना ,अनकहा हो
क्यो मिटने है लगा ।
क्या साथ था इतना ?
या नाराज़गी है किसी शै की ,
जो धुंधली तस्वीर सी
हुए जाते हो ।
करने लगा संकेत क्या ये बयाँ
सब कुछ हो रहा यहाँ
क्यो धुआं -धुआं ।
जाने किसे क्या मंजूर है ,
हालात क्यो इतने मजबूर है ।
जहाँ खतम सा कुछ नही
फिर भी अंत दिख रहा ,
बात आपस में चलती नही
फिर भी फ़साना लिख रहा ।
कुछ बात है जरूर
ये किसे पता है ,
गुमां इस बात का
शायद जरा -जरा है ।