मंगलवार, 24 सितंबर 2019

शाख के पत्ते ...

हम ऐसे शाख के पत्ते है 

जो देकर छाया औरो को 

ख़ुद ही तपते रहते है ,

दूर दराज़ तक छाया का 

कोई अंश नही ,

फिर भी ख्वाबो को बुनते है 

उम्मीदों की इमारत बनाते है ,

और ज्यो ही ख्यालो से निकल कर 

हकीकत से टकराते है 

ख्वाबो की वह बुलंद इमारत 

बेदर्दी से ढह जाती है ,

तब हम अपनी तकदीर को 

वही खड़े हो ......

कोसते रह जाते है । 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

चन्द सवाल है जो चीखते रह गये ...

हमारे दरम्यान के सभी रास्ते यकायक बंद हो गये
क्या कहे ,न कहे हम इस सवाल पर अटक गये ।

हम जानते है ये खूब ,दगा फितरत मे नही तुम्हारे
कोशिश तो थी  मिटाने की ,मगर दाग फिर भी रह गये ।

जब भी बढ़कर उदासी मे  तुम्हे गले लगाना चाहा,
तभी कुछ चुभने लगा और कदम ठहर गये ।

सब कुछ ख़ामोशी मे दबकर तो रह गया
मगर चंद सवाल है ,जो चीखते रह  गये ।

हर बात गहरे यकीन का अहसास दिलाती है
पर वो नही कभी कह पाये जो तुम कह गये ।

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

दुर्दशा ?


जीवन की अवधि

और दुर्दशा

चीटी की भांति

होती जा रही है ,

कब मसल जाये

कब कुचल जाये ,

कब बीच कतार से

अलग होकर

अपनो से जुदा हो जाये ।

भयभीत हूँ

सहमी हूँ

मनुष्य जीवन आखिर

अभिशप्त क्यों हो रहा ?

कही हमारे कोसने का

दुष्परिणाम तो नही

या कर्मो का फल ?

ज्योति

शनिवार, 14 सितंबर 2019

बूंद-- बूंद

जिंदगी इतनी आसानी से

देती कहाँ हमे कुछ ,

संघर्षों के बिना है होता

हासिल कहाँ हमे कुछ ।
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गम अज़ीज़ हो गया

खुशी को नकार के ,

उठा कर हार गये हम

जब नखरे  बहार के  ।

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गुरुवार, 12 सितंबर 2019

अधूरी आस


ख्यालो की दौड़ कभी

थमती नही

कलम को थाम सकू

वो फुर्सत नही ,

जब भी कोशिश हुई

पकड़ने की

वक़्त छीन ले गया ,

एक पल को भी

रूकने नही दिया ,

सोचती हूँ

इन्द्रधनुषी रंग सभी

क्या बादल में ही

छिप कर रह जायेंगे ,

या जमीं को भी

कभी हसीं बनायेंगे l

बुधवार, 11 सितंबर 2019

धीरे --धीरे ...

टूट रहे सारे  रिश्ते

कल के धीरे- धीरे

जुड़ रहे सारे रिश्ते

आज के धीरे - धीरे ,

समय बदल गया

सोच बदल गई

मंजिल की सब

दिशा बदल गई ,

हम ढल रहा है अब

मै  में धीरे  -धीरे

साथ रहने वाले  अब

कट रहे  धीरे  -धीरे ,

सबका अपना आसमान है

सबकी अपनी जमीन हो  गईं ,

एक छत  के नीचे  रहने

वालों की  अब कमी हो गई ,

रीत बदल रही

धीरे - धीरे

प्रीत बदल रही 

धीरे - धीरे ।

सोमवार, 9 सितंबर 2019

बंजारों की तरह ....

बंजारों की तरह अपना ठिकाना हुआ

रिश्ता हर शहर से अपना पुराना हुआ,

स्वभाव ही है नदियों का बहते रहना

मौजो को रुकना कब गवारा हुआ ,

बेजान से होते है परिंदे बिन परवाज के

उड़े बिना उनका कहाँ गुजारा हुआ ,

चाह है जिसे  मंजिल पाने की

रास्ता ही उनका सहारा हुआ  ।