आहिस्ता - आहिस्ता
दर्द घर में
पैर जमाता रहा _
और कुछ हल्की
कुछ गहरी छाप
अपनी शक्ल की
छोड़ता रहा ।
हम इसकी आमद से
घबराते रहे ,
ये अपना राज
फैलाता रहा ।
आहिस्ता - आहिस्ता
दर्द घर में
पैर जमाता रहा _
और कुछ हल्की
कुछ गहरी छाप
अपनी शक्ल की
छोड़ता रहा ।
हम इसकी आमद से
घबराते रहे ,
ये अपना राज
फैलाता रहा ।
क्या .......?
क्या कहा जाये
क्या सुना जाये
इस क्या से आगे
यहाँ कैसे बढ़ा जाये
समझ आता नहीं ,
क्योंकि ये दुनिया अब
पहले जैसे सीधी रही नहीं ,
तभी आसान बात भी
मुश्किल नज़र आती है ,
किसी से कहे कुछ
उसे समझ कुछ
और आती है ।
शायद इसलिए ज़िन्दगी अब ,
लम्हों में बिखर जाती है ।
जिंदगी यूँ ही कतरा -कतरा
गुजारी जाती है ।
- ज़िन्दगी यूँ ही कतरा कतरा गुजार
- ज़िन्दगी यूँ
शीर्षक ---पतवार
.................
उम्र गुजर जाती है सबकी
लिए एक ही बात ,
सबको देते जाते है हम
आँचल भर सौगात ,
फिर भी खाली होता है
क्यों अपने मे आज ?
रिक्त रहा जीवन का पन्ना
जाने क्या है राज ?
बात बड़ी मामूली सी है
पर करती खड़ा फसाद ,
करके संबंधों को विच्छेदित
है बीच में उठाती दीवार ।
सवालों में उलझा हुआ
ये मानव संसार
गिले - शिकवे की अपूर्णता पर
घिरा रहा मन हर बार ।
रहस्य भरा कैसा अद्भुत
है मन का ये अहसास ,
रोमांचक किस्से सा अनुभव
इस लेन- देन के साथ ,
जीवन की नदियां मे
चल रही है पतवार ,
कभी मिल गया किनारा
कभी डूबे बीच मझधार ।
. .... ..................
ज्योति सिंह