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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आज.....

दिल ये मानता है उम्र भर साथ कोई चलता नही , दिल ये समझ नही पाता वो तन्हा जी सकेगा कि नही । किसी मुकिम की तलाश में ख्वाहिश सदा रही साथ चलने की , निबाहे जहाँ वफ़ा के संग मुकाम वो हो कोई दिल का भी । दुनिया की भीड़ में होकर भी चाह थी हमें किसी अपने की , तमाम उम्र का हिसाब है किसके पास वर्तमान में भविष्य को तौलता कोई नही । सम्भव हो जहाँ तक , तब तक चल आज है संग हमराही , अभी देखना क्या कल कल देखेंगे कल की ।

कभी -कभी ऐसा भी...........

दिन भर की भाग - दौड़ के बाद जब बिस्तर पर लेटे होगे , और मेरे ख्यालों को लपेटे आँखे मूँद सोचे होगे , अच्छी बुरी कई बातें तुम्हारी नज़रों में होगी , पर मेरी बेतुकी बातें तुमको तकलीफे दे रही होंगी । अनचाहे मन से मुझको भला - बुरा कहते होगे , एक पल अपना एक पल पराया महसूस तुम्हे होता होगा , इतनी दुविधाओ में भी चाहत नही मिटती होगी । और मेरी अच्छाई का ख्याल उन्हें आता होगा , जिसकी वज़ह से ये बंधन वही ठहर जाता होगा ।

ख्वाहिशों .........

आज सोचा चलो अपनी ख्वाहिशो को रास्ता दूँ , राहो से पत्थर हटा कर उसे अपनी मंजिल छूने दूँ , मगर कुछ ही दूर पर्वत खड़ा था अपनी जिद्द लिए अडा था , उसका दिल कहाँ पिघलता मुझ जैसा इंसान नही था । स्वप्न उसकी निष्ठुरता पर , खिलखिलाकर हँस पड़े । हो बेजान , अहसास क्या समझोगे हद क्या है जूनून की , कैसे जानोगे ? आज नही सही कल पार जायेंगे उड़ान भर ; मंजिल छू जायेंगे ।

हम -तुम

इस दुनिया की भीड़ में हम -तुम तन्हा चलते है , थाम हमारे इन हाथों को इन राहों पे निकलते है , घुँघरू की झंकारों सी है झंकृत होती खामोशी , हल्की मुस्कानों की आभा से लबो पे एक किरण बिखरी , आपस में इन नज़रो ने कही बातें अनकही , यदि अंत न हो राहों का तो ये सफर थमता न कही , ख्यालों में गुमसुम होकर हम चलते रहते यूँ ही ।

खामोशी

खड़ी खड़ी मैं देख रही, मीलों की खामोशी, नहीं रही अब इस शहर में, पहली सी हलचल सी। खामोशी का अफसाना क्यों , ये वक्त लगा है लिखने, जख्मों से हरा-भरा ये शहर लगा है दिखने। देकर कोई आवाज़ कहीं से ये तोड़ो लम्बी खामोशी। बेहतर लगती नहीं कहीं गलियों में फिरती खामोशी।