धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
सच यदि शालीनता से कहो तो कोई नहीं मानता
और शोर व् हल्ला दे कर झूठ भी कहो तो सब मान लेते है
----देवेंद्र गौतम
वैसे एक शायर यूं भी फ़रमाते हैं-
इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दे
खामोश मिज़ाजी तुझे जीने नहीं देगी.
और हफ़ीज़ मेरठी साहब ये कह गए हैं
इल्तजा तो कोई भी सुनता नहीं
क्या करें, हम बेअदब हो जाएं क्या?
इन सबके बावजूद समाज में शांति ज़रुरी है और आपने एक सार्थक संदेश दिया है... बधाई.
kya khoob kataxh kiya hai .sach me ab yahi jamana aagaya hai.
kahte hai jiski lathi usi ki bhains .
bilkul aapki rachna par charitaarth hoti hai
bahut hi badhiya prastuti
badhai v dhanyvaad
poonam
शुभकामनायें आपको !!
accha laga aapka sath pakar .
Aabhar
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य है.
आपके ये शब्द बहुत सुकून देते ही जब भी आपके ब्लॉग तक आना होता है कई कई बार इसे पढता हूँ ,,दिल में सौभाग्यशाली होने की आरज़ू सी उठती है.