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दर्द

आहिस्ता - आहिस्ता दर्द घर में पैर जमाता रहा _ और कुछ हल्की कुछ गहरी छाप अपनी शक्ल की छोड़ता रहा । हम इसकी आमद से घबराते रहे , ये अपना राज फैलाता रहा ।

क्या.............?

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  क्या .......? क्या  कहा  जाये  क्या  सुना  जाये  इस  क्या  से  आगे   यहाँ  कैसे  बढ़ा  जाये समझ  आता  नहीं  , क्योंकि  ये  दुनिया  अब   पहले  जैसे  सीधी  रही  नहीं  , तभी  आसान  बात  भी  मुश्किल  नज़र  आती  है  , किसी  से  कहे  कुछ  उसे  समझ  कुछ  और  आती  है  ।  शायद  इसलिए  ज़िन्दगी  अब , लम्हों  में  बिखर  जाती  है  ।  जिंदगी यूँ  ही कतरा -कतरा  गुजारी जाती है । - ज़िन्दगी यूँ ही कतरा कतरा गुजार - ज़िन्दगी यूँ
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होकर भी साथ नहीं ख्वाब  वही   ख्वाहिश  वही  अल्फाज  वही   ज़ुबां  वही  , फिर  रास्ते  कैसे   जुदा  है  सफ़र  के  , कदम  साथ  अपने  दे  रहे  क्यों  नहीं  । कही  तो  कुछ   खलिश  है  मन में  जो दिल चाहकर  भी  मिल  रहा  नहीं  । 
नामुमकिन को मुमकिन करना सबके वश का काम नहीं, हुई सफलता उसी को हासिल हार भी जिसके लिए हार नही । .................... अच्छा हुआ तो प्यार में बुरा हुआ तो प्यार में, फिर भी प्यार ,प्यार ही रहा चाहे जो हुआ हो प्यार में ।

पतवार

शीर्षक   ---पतवार ................. उम्र गुजर जाती है सबकी लिए एक ही बात , सबको देते जाते है हम आँचल भर सौगात , फिर भी खाली होता है क्यों अपने मे आज ? रिक्त रहा जीवन का पन्ना जाने क्या है राज  ? बात बड़ी मामूली सी है पर करती खड़ा फसाद , करके संबंधों को विच्छेदित है बीच में उठाती दीवार । सवालों में उलझा हुआ ये मानव संसार गिले - शिकवे की अपूर्णता पर घिरा रहा मन हर बार । रहस्य भरा कैसा अद्भुत है मन का ये अहसास , रोमांचक किस्से सा अनुभव इस लेन- देन के साथ , जीवन की नदियां  मे चल रही है पतवार , कभी मिल गया किनारा कभी  डूबे  बीच मझधार । . ....  .................. ज्योति सिंह