रविवार, 19 अप्रैल 2009

खड़ी खड़ी मैं देख रही,
मीलों की खामोशी,
नहीं रही अब इस शहर में,
पहली सी हलचल सी।
खामोशी का अफसाना क्यों ,
ये वक्त लगा है लिखने,
जख्मों से हरा-भरा ये शहर लगा है दिखने।
देकर कोई आवाज़ कहीं से
ये तोड़ो लम्बी खामोशी।
बेहतर लगती नहीं कहीं
गलियों में फिरती खामोशी.

1 टिप्पणी:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना.बस इसी प्रकार लिखती रहें...बधाई.