याद-ऐ-तन्हाई
दराजे-तन्हाई , दार-मदार हो जिसके
अश्को ने सदा साथ निभाया ।
करवटे दर- गुज़र करती रही
आँखों में भरे नींदों को ,
तन्हाई का ऐसा आलम
कब रात गई कब सहर हुई ।
दर्द भी हल दर्क* न सका , और
जागते को सुबह भी जगाने आई ।
(दर्क=पाना.)
अश्को ने सदा साथ निभाया ।
करवटे दर- गुज़र करती रही
आँखों में भरे नींदों को ,
तन्हाई का ऐसा आलम
कब रात गई कब सहर हुई ।
दर्द भी हल दर्क* न सका , और
जागते को सुबह भी जगाने आई ।
(दर्क=पाना.)
टिप्पणियाँ
तन्हाई का ऐसा आलम
कब रात गई कब सहर हुई ।
बहुत खूब
अगर्चे बोलता कोई नहीं था.
इतनी ही गहरी है, आपकी गज़ल की तन्हाई भी. बहुत सुन्दर.
तन्हाई का ऐसा आलम
कब रात गई कब सहर हुई ।
bdhai
क्षमा कीजिये ज्योति जी ,मैं आप से इतिफाक नहीं रखता ,मेरा तो कहना हैं ---------
याराँ वो तो बेवफा हुआ,
गम में जो आँसू ,
आँखों से जुदा हुआ,
पूरी यहाँ उपलब्ध है
आंसू और तनहाई
waah waah..
bahut khoob..
kya baat hai, zabardat...