
स्वाती की बूँद का
निश्छल निर्मल रूप ,
पर जिस संगत में
समा गई
ढल गई उसी अनुरूप ।
केले की अंजलि में
रही वही निर्मल बूँद ,
अंक में बैठी सीप के
किया धारण
मोती का रूप ,
और गई ज्यो
संपर्क में सर्प के
हो गई विष स्वरुप ।
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
17 टिप्पणियां:
bahut sacchee baat......kavita ke madhyam se bahut sunder abhivykti..........
Aabhar .
waah ! कितनी गहन बात कह दी आपने! इंसान गर आँखे खोलके न जिए,satark na rahe, तो निश्चित गलत सांचे में ढल सकता है.
बहुत सुंदर!
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
सच्चाई को सुंदर शब्द दे दिए आप ने
बधाई !
बहुत उम्दा!!
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
बिलकुल सही बात कही। सुन्दर सब्देश देती रचना के लिये बधाई।
haan!! jab yahi bund seep ke muh me pahuch jati hai to moti ka rup dhar leti hai .....:)
ek sarthak arth wali kavita....!
कितना सच कोई भी जन्म से ही
बुरा या भला नहीं होता उसे तो साथ परिस्थितियां और मजबूरियां ही सब कुछ बनाती हैं
bahut hi saralta se jivan ke gudh rahasyon ko vimbit kiya hai
Aapka safar sukhmay ho!
बेहद सुंदर जी
बहुत सही बात
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप
क्या बात कही है ज्योतिजी आपने \सोलह आने सच |
उपमा अलंकार का अच्छा प्रयोग किया है |
सुन्दर कविता |
ज्योति जी ! संग साथ ही किसी को सनाथ या अनाथ करता है ।
सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम् ।
भर्तृहरि
आपकी रचना प्रकृति की जय बोलती है । आपकी कविताएँ समाज का पथ प्रशस्त करेंगी ।
संगत का सही रूप दिखाया आपने ......!!
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
-बहुत ही सच्ची बात कही आप ने.संगत का असर ही ऐसा है.
-गहन भाव लिए यह बहुत अच्छी कविता है.
nice
ऐसे भी कोई किसी से रूठता है क्या ?
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