शनिवार, 13 जनवरी 2018

कल उतना ही सुंदर हो......

कल उतना ही सुंदर हो
जितना बचपन मेरा था ।
न जवाबों की जरूरत थी
न सवालों का डेरा था ।

न मजहब का झगड़ा था
न तेरा न मेरा था ,
जात-पांत का भेद न जाना
मन से मन का फेरा था ।

जो कहता मन मेरा था
वह करता मन मेरा था ,
मुक्त गगन के निचले तल पर
स्वतंत्र स्वछंद बसेरा था ।

भावनाओं से बंधा हुआ
जीवन स्वप्न सुनहरा था ,
हर रात सुकून भरी होती
हर दिन नया सवेरा था ।

गुरुओं का आशीर्वाद लिए
सद्ज्ञान का लगता फेरा था ,
नित अनुशासन में बंधा हुआ
विद्यार्थी जीवन मेरा था ।
कल उतना ही सुंदर हो
जितना बचपन मेरा था ।

4 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है ज्योति.

ज्योति सिंह ने कहा…

शुक्रियाँ वंदना

संजय भास्‍कर ने कहा…

हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें

ज्योति सिंह ने कहा…

शुक्रियाँ संजय