गुमां नहीं रहा
जिंदगी का जिंदगी पे अधिकार नही रहा
इसीलिए उम्र का अब कोई हिसाब नही रहा ,
आज है यहाँ , कल जाने हो कहाँ
साथ के इसका एतबार नही रहा ,
मोम सा दिल ये पत्थर न बन जाये
हादसों का यदि यही सिलसिलेवार रहा ,
जुटाते रहें तमाम साधन हम जीने के लिए
मगर सांस जब टूटी साथ कुछ नही रहा ,
देख कर तबाही का नजारा हर तरफ
अब बुलंद तस्वीर का ख्वाब नही रहा ,
वर्तमान की काया विकृत होते देख
भविष्य के सुधरने का गुमां नही रहा ,
सोचने को फिर क्या रह जाएगा बाकी
हाथ में यदि कोई लगाम नही रहा l
टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर।
हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
एक समय आता है ऐसा जब खुद का खुद पे अधिकार नहीं रहता ... यही जीवन है ...