धीरे - धीरे यह अहसास हो रहा है ,
वो मुझसे अब कहीं दूर हो रहा है।
कल तक था जो मुझे सबसे अज़ीज़ ,
आज क्यों मेरा रकीब हो रहा है।
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इन्तहां हो रही है खामोशी की ,
वफाओं पे शक होने लगा अब कहीं।
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जिंदगी है दोस्त हमारी ,
कभी इससे दुश्मनी ,
कभी है इससे यारी।
रूठने - मनाने के सिलसिले में ,
हो गई कहीं और प्यारी ।
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इस इज़हार में इकरार
नज़रंदाज़ सा है कहीं ,
थामते रह गए ज़रूरत को ,
चाहत का नामोनिशान नहीं।
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ये बहुत पुरानी रचना है किसी के कहने पर फिर से पोस्ट कर रही हूँ ।
टिप्पणियाँ
a thought provoking post !!
खूबसूरत रचना
aajkal har cheez out of limit hoti ja rhi hain
बहुत ऊंचाई तक
पहुँचने के प्रयास में
नई तकनीक की
तलाश में
अपना वजूद न मिटा दे ,
बहुत सुंदर और सार्थक रचना !!!!!!!!!
साभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सिर्फ तन्हा होने का
ख्याल डस रहा है ,
कल सारी धरती ही
तन्हा न हो जाये .....
बहुत ही सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न भी ..
आप जितना उपर जाते हो, वो उतनी सकरी होती जाती है.
और आप अकेले होते जाते हो.
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क्या मानवता भी क्षेत्रवादी होती है ?
बाबा का अनशन टुटा !
महाप्रलय शरीर की ही हो सकती है,आत्मा की नहीं. कबीरदास जी कहते हैं
'झूंठे सुख को सुख कहें, मानत हैं मन मोद
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद'
जीवन काल में हम आत्म ज्ञान प्राप्त करलें यही सबसे बड़ी ऊँचाई पर पहुँच पाने की तकनीक है.
आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.
मर जाएगा तू मत सोचा कर ...
...शायद इस विकास में ही कुछ बेहतर निकल आए ...
sunder kavita
rachana
शुक्ल भ्रमर ५