मानवता का स्वप्न
कैसा दुर्भाग्य ? तेरा भाग्य
सर्वोदय की कल्पना ,
बुनता हुआ विचार,
स्वर्णिम कल्पना को आकार देता ,
खंडित करता , फिर
उधेड़ देता लोगों का विश्वास ,
नवोदय का आधार
फिर भी आंखों में अन्धकार ।
इच्छाओं की साँस का
घोटता हुआ दम ,
अन्तः मन का द्वंद प्रतिक्षण ।
भाव - विह्वल हो कांपता ,
अकुलाता भ्रमित - स्पर्श ,
टूट कर भी निःशब्द ,
मानवता का 'स्वप्न ' ।
टिप्पणियाँ
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Swasthy ka dhyan rakhiyega........
रेखा श्रीवास्तव
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स्वर्णिम कल्पना को आकार देता ,
खंडित करता , फिर...उधेड़ देता लोगों का विश्वास.....
ज्योति जी,
हृदय की भावनाओं को
प्रभावशाली शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने.
बधाई स्वीकार करें.
अकुलाता भ्रमित - स्पर्श ,
टूट कर भी निःशब्द ,
मानवता का 'स्वप्न ' ।
-बहुत अच्छी कविता है ज्योति जी.
रचना बहुत कुछ कहती है ।