जब मैं था तब हरि नहीं -- अब हरि हैं मैं नाही प्रेम गली अति सांकरी - टा में दो ना समाहि!!!!!!!!! आपकी रचना पढ़कर यही याद आया | मैं में सब होकर भी कंगाली है और हम में कुछ ना होकर भी खुश हाली है | सुंदर अर्थपूर्ण रचना | सस्नेह हार्दिक शुभकामनायें |
बात अपनी होती है तब जीने की उम्मीद को रास्ते देने की सोचते है वो , बात जहाँ औरो के जीने की होती है , वहाँ उनकी उम्मीद को सूली पर लटका बड़े ही आहिस्ते -आहिस्ते कील ठोकते हुये दम घोटने पर मजबूर करते है । रास्ते के रोड़े , हटाने की जगह बिखेरते क्यों रहते हैं ? ........................................ इसका शीर्षक कुछ और है मगर यहाँ मैं बदल दी हूँ क्योंकि यह एक सन्देश है उनके लिए जो किसी भी अच्छे कार्य में सहयोग देने की जगह रोक -टोक करना ज्यादा पसंद करते .
कितने सुलझे फिर भी उलझे , जीवन के पन्नो में शब्दों जैसे बिखरे । जोड़ रहे जज्बातों को तोड़ रहे संवेदनाएं , अपनी कथा का सार हम ही नही खोज पाये । पहले पृष्ठ की भूमिका में बंधे हुए है , अब भी , अंत का हल लिए हुए आधे में है अटके । और तलाश में भटक रहे अंत भला हो जाये , लगे हुए पुरजोर प्रयत्न में यह कथा मोड़ पे लाये ।
ओस की एक बूँद नन्ही सी चमकती हुई अस्थाई क्षणिक रात भर की मेहमान ___ जो सूरज के आने की प्रतीक्षा कतई नही करती , चाँद से रूकने की जिद्द करती है , क्योंकि दूधिया रात मे उसका वजूद जिन्दा रहता है , सूरज की तपिश उसके अस्तित्व को जला देती है ।
टिप्पणियाँ
प्रेम गली अति सांकरी - टा में दो ना समाहि!!!!!!!!!
आपकी रचना पढ़कर यही याद आया | मैं में सब होकर भी कंगाली है और हम में कुछ ना होकर भी खुश हाली है | सुंदर अर्थपूर्ण रचना | सस्नेह हार्दिक शुभकामनायें |
बहुत सुन्दर...