संगदिल

तुम तो पत्थर की मूरत हो

नज़र आते , अजंता की सूरत हो ,

जहां प्रेम तो झलकता बखूबी

पर अहसास नही जिन्दा कही भी ,

हर बात बेअसर है तुम पर

जो समझ से मेरे है ऊपर ,

सब बात पे आसानी से कह जाते

कोई फर्क नही पड़ता हम पर ,

इस हाड़ मांस के पुतले में

दिल तो नही ,हो गया कही पत्थर  ? 

तुम कह गए और हम मान गये

यहाँ बात नही होती ,पूरी दिलबर ,

क्या ऐसा भी संभव है

यह प्रश्न खड़ा ,मेरे मन पर ,

छोड़ो अब इसे जाने दो ,देखेंगे

क्या होगा आगे आने पर ।


टिप्पणियाँ

अनीता सैनी ने कहा…
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१३-०२-२०२१) को 'वक्त के निशाँ' (चर्चा अंक- ३९७६) पर भी होगी।

आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
ज्योति सिंह ने कहा…
हार्दिक आभार, बहुत बहुत धन्यबाद आपका अनिता जी
Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…
तुम तो पत्थर की मूरत हो
नज़र आते , अजंता की सूरत हो ,
जहां प्रेम तो झलकता बखूबी
पर अहसास नही जिन्दा कही भी

भावपूर्ण सुंदर रचना ❗🙏❗
Amrita Tanmay ने कहा…
अति सुन्दर भाव एवं कथ्य ।
Onkar ने कहा…
आपका आभार
Alaknanda Singh ने कहा…
बहुत सुंदर कव‍िता ज्योत‍ि जी, और वो भी इस बसंत के मौसम में ..वाह
Kamini Sinha ने कहा…
बहुत सुंदर ही अभिव्यक्ति ज्योति जी सादर नमस्कार

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

गुमां नहीं रहा

कुछ मन की

ओस ...