व्यक्तिवाद
कभी -कभी अतीत होता है
इतना भयावह कि
दुःख -दर्द के मेल का
हरेक वाक्या दिल
दहला जाता है ।
पलट कर देखो तो
आंसुओ का मंजर ही
नज़र आता है ।
'मैं ' का स्थान शून्य होता
मर्यादाओ के बोझ तले ,
'हम ' का अस्तित्व जटिल हुआ
आंसुओ और आहो के खेल में ।
'मैं ' जहां 'हम ' तक
नही बन पाता है ,
रिश्तों की बुनियाद को भी
यही व्यक्तिवाद
हिला देता है ।
टिप्पणियाँ
एक बेहतरीन रचना ......
भाव अच्छे हैं . कोई भी मुरीद हो जाए . 'मैं' का 'हम' बन जाना पानी में चीनी की तरह घुल जाना ही होगा शायद .तब बच जाता है पानी . चीनी मिठास देकर विलीन हो जाती है . यानी एक का अस्तित्व ख़त्म .
इतना भयावह कि
दुःख -दर्द के मेल का
बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता
मर्यादाओ के बोझ तले ,
'हम ' का अस्तित्व जटिल हुआ
आंसुओ और आहो के खेल में
ज्योति जी मैं और हम की इस जंग में हमें बहुत कुछ सीखने को मिला है . इस रचना के लिए बधाई
सादर रचना
यही व्यक्तिवाद
हिला देता है ।
bahut si vythaye kah gai ye pnktiya .
bahut achhi rachna.
aur rishtoN ki sachchaaee
ki steek paribhaashaa
ek achhee rachnaa .
इतना भयावह कि
LAJWAAB LINE