शिल्प-जतन
नीव उठाते वक़्त ही
कुछ पत्थर थे कम ,
तभी हिलने लगा
निर्मित स्वप्न निकेतन ।
उभर उठी दरारे भी व
बिखर गये कण -कण ,
लगी कांपने खिड़की
सुनकर भू -कंपन ,
दरवाजे भी सहम गये
थाम कर फिर धड़कन ।
टूट रहे थे धीरे धीरे
सारे गठबंधन
आस और विश्वास का
घुटने लगा दम
जरा सी चूक में
लगे टूटने सब बंधन ,
शिल्पी यदि जतन करता ,
लगाता स्नेह और
समानता का गारा ,
तब दीवारे भी बच जाती
दरकने से
छत भी बच जाती
चटकने से और
आंगन सूना न होता
संभल जाता ये भवन ।
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सादर