नीव उठाते वक़्त ही
कुछ पत्थर थे कम ,
तभी हिलने लगा
निर्मित स्वप्न निकेतन ।
उभर उठी दरारे भी व
बिखर गये कण -कण ,
लगी कांपने खिड़की
सुनकर भू -कंपन ,
दरवाजे भी सहम गये
थाम कर फिर धड़कन ।
टूट रहे थे धीरे धीरे
सारे गठबंधन
आस और विश्वास का
घुटने लगा दम
जरा सी चूक में
लगे टूटने सब बंधन ,
शिल्पी यदि जतन करता ,
लगाता स्नेह और
समानता का गारा ,
तब दीवारे भी बच जाती
दरकने से
छत भी बच जाती
चटकने से और
आंगन सूना न होता
संभल जाता ये भवन ।
14 टिप्पणियां:
सादर नमस्कार,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार
(26-06-2020) को
"सागर में से भर कर निर्मल जल को लाये हैं।" (चर्चा अंक-3744) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 25 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद मीना जी
धन्यवाद यशोदा जी
रिश्तों का ताना बाना गूँथती विश्वास के बँधन से बँधी जीवन रुपी इमारत का लाजवाब सृजन आदरणीय दी.सम्पूर्ण रचना मोती-सी पिरोई है बहुत बहुत बधाई बहना .
सादर
बहुत ही खूबसूरत टिप्पणी अनिता ,हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रियां मेरी बहना, मन खुश हो जाता है सबकी टिप्पणियों को पढ़कर ,हार्दिक आभार
बहुत सुंदर ज्योति जी, 👌👌👌। असमानता और उपेक्षा ही तो जीवन की इमारत को जर्जर कर देते हैं। यदि स्नेह समानता से इसकी नींव रखी जाए तो कोई भी विभीषिका ईसे हिला नहीं सकती। बहुत मार्मिक रचना जो विचलित मन के उद्गार है । हार्दिक शुभकामनायें🙏🙏🌷🌷
सहज,सरल सुंदर और संदेशात्मक अभिव्यक्ति।
जीवन रूपी इमारत का यथार्थ चित्रण
बहुत सुंदर लेखन 🌻
खूबसरत अभिव्यक्ति
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति
नींव पर ही महल टिकता है चाहे मन का बंधन। बहुत अच्छी रचना। बधाई।
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