संगत ........
स्वाती की बूँद का
निश्छल निर्मल रूप ,
पर जिस संगत में
समा गई
ढल गई उसी अनुरूप ।
केले की अंजलि में
रही वही निर्मल बूँद ,
अंक में बैठी सीप के
किया धारण
मोती का रूप ,
और गई ज्यो
संपर्क में सर्प के
हो गई विष स्वरुप ।
मनुष्य आचरण जन्म से
कदापि , होता नही कुरूप ,
ढलता जिस साँचे में
बनता उसका प्रतिरूप ।
टिप्पणियाँ
जैसी संगति पाइये वैसौ ही सुख दीन .
सचमुच संगति का प्रभाव स्थायी और अवश्यम्भावी होता है . सुन्दर अभिव्यक्ति ज्योति जी .
निशब्द दी